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चतुर्दशं पर्व
३०९ मनोरथशतान्यन्ये कुर्वते कर्मवेष्टिताः । कालं नयन्ति कृच्छण प्राणिनः परवेश्मसु ॥४२॥ निरूपा धनिनः केचिभिर्धनाः रूपिणोऽपरे । केचिद्दीर्घायुषः केचिदत्यन्तस्तोकजीविनः ॥१३॥ इष्टा यशस्विनः केचिस्केचिदत्यन्तदुर्मगाः । केचिदाज्ञां प्रयच्छन्ति तामन्ये कुर्वते जनाः ॥४४॥ प्रविशन्ति रणं केचित्केचिद्गच्छन्ति वारिणि । यान्ति देशान्तरं केचित्केचित्कृष्यादि कुर्वते ॥४५॥ एवं तत्रापि वैचित्र्यं जायते सुखदुःखयोः । सर्व तु दुःखमेवात्र सुखं तत्रापि कल्पितम् ॥४६॥ सरागसंयमाः केचित्संयमासंयमास्तथा । अकामनिर्जरातश्च तपसश्च समोहतः ॥४७॥ देवत्वं च प्रपद्यन्ते चतुर्भदसमन्वितम् । केचिन्महद्धयोऽत्रापि केचिदल्पपरिच्छदाः ॥४८॥ स्थित्या त्या प्रभावेण धिया सौख्येन लेश्यया । अभिमानेन मानेन ते पुनः कर्मसंग्रहम् ॥४९॥ कृत्वा चतुर्गतौ नित्यं भवे भ्राम्यन्ति जन्तवः । अरचट्टघटीयन्त्रसमानत्वमुपागताः ॥५०॥ संकल्पादशुभाद् दुःखं प्राप्नोति शुभतः सुखम् । कर्मणोऽष्टप्रकारस्य जीवो मोक्षमुपक्षयात् ॥५१॥ दानेनापि प्रपद्यन्ते जन्तवो भोगभूमिषु । भोगान् पात्रविशेषेण वैश्वरूपमुपागताः ॥५२॥ प्राणातिपातविरतं परिग्रहविवर्जितम् । उद्धमाचक्षते पात्रं रागद्वेषोज्झितं जिनाः ॥५३॥. सम्यग्दर्शनसंशुद्धं तपसापि विवर्जितम् । पात्रं प्रशस्यते मिथ्यादृष्टेः कायस्य शोधनात् ॥५४॥ आपदभ्यः पाति यस्तस्मात्पात्रमित्यमिधीयते । सम्यग्दर्शनशक्त्या च त्रायन्ते मुनयो जनान् ॥५५॥
दर्शनेन विशुद्धेन ज्ञानेन च यदन्वितम् । चारित्रेण च तत्पात्रे परमं परिकीर्तितम् ॥५६॥ अत्यन्त दरिद्र होते हैं ॥४१॥ कर्मोसे घिरे कितने ही प्राणी सैकड़ों मनोरथ करते हुए दूसरेके घरोंमें बड़ी कठिनाईसे समय बिताते हैं ॥४२॥ कोई धनाढ्य होकर भी कुरूप होते हैं, कोई रूपवान् होकर भी निर्धन रहते हैं, कोई दीर्घायु होते हैं और कोई अल्पायु होते हैं ।।४३।। कोई सबको प्रिय तथा यशके धारक होते हैं, कोई अत्यन्त अप्रिय होते हैं, कोई आज्ञा देते हैं और कोई उस आज्ञाका पालन करते हैं ।।४४|| कोई रणमें प्रवेश करते हैं, कोई पानीमें गोता लगाते हैं, कोई विदेशमें जाते हैं और कोई खेती आदि करते हैं ॥४५॥ इस प्रकार मनुष्य गतिमें भी सुख और दुःखकी विचित्रता देखी जाती है । वास्तवमें तो सब दुःख ही है सुख तो कल्पना मात्र है ।।४६||
कोई जीव सरागसंयम तथा संयमासंयमके धारक होते हैं, कोई अकाम निर्जरा करते हैं और कोई बालतप करते हैं ऐसे जीव भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक इन चार भेदोंसे युक्त देव गतिमें उत्पन्न होते हैं सो वहाँ भी कितने ही महद्धियोंके धारक होते हैं और कितने ही अल्प ऋद्धियोंके धारक ॥४७-४८॥ स्थिति, कान्ति, प्रभाव, बुद्धि, सुख, लेश्या, अभिमान और मानके अनुसार वे पुनः कर्मोका बन्ध कर चतुर्गति रूप संसारमें निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं । जिस प्रकार अरघटकी घड़ी निरन्तर घूमती रहती है इसी प्रकार ये प्राणी भी निरन्तर घूमते रहते हैं ।।४२-५०।। यह जीव अशुभ संकल्पसे दुःख पाता है, शुभ संकल्पसे सुख पाता है और अष्टकोंके क्षयसे मोक्ष प्राप्त करता है ॥५१॥ पात्रकी विशेषतासे अनेक रूपताको प्राप्त हुए जीव दानके प्रभावसे भोग-भूमियोंमें भोगोंको प्राप्त होते हैं ।।५२।। जो प्राणिहिंसासे विरत, परिग्रहसे रहित और राग-द्वेषसे शून्य हैं उन्हें जिनेन्द्र भगवान्ने उत्तम पात्र कहा है ॥५३॥ जो तपसे रहित होकर भी सम्यग्दर्शनसे शुद्ध है ऐसा पात्र भी प्रशंसनीय है क्योंकि उससे मिथ्यादृष्टि दाताके शरीरकी शुद्धि होती है ।।५४।। जो आपत्तियोंसे रक्षा करे वह पात्र कहलाता है (पातीति पात्रम् ) इस प्रकार पात्र शब्दका निरुक्त्यर्थ है। चूंकि मुनि, सम्यग्दर्शनकी सामर्थ्यसे लोगोंकी रक्षा करते अतः पात्र हैं ।।५५|| जो निर्मल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे सहित होता १. मनोरथशतानन्ये म.। २. यथास्विनः म. ( ? )। ३. -मुपागतः म.। ४. प्रशस्तम्, उत्तमाश्चक्षते म. । ५. यदश्चितम् ख.।
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