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चतुर्वर्श पर्व
३११ अहो महानयं मोहः 'सर्वावस्थेषु यजनाः । स्वापतेय विमुञ्चन्ति विप्रलब्धाः कुशासनैः ॥६९॥ धिगस्तु तान् खलानेष जनो यैर्विप्रतारितः । लोभात् कुग्रन्थकन्थामिर्वराको नेयमानसः ॥७०॥ मृष्टत्वाद् बलकारित्वान्मांस भक्ष्यमुदाहृतम् । पापैर्दम्मप्रसिद्धयर्थ परिसंख्या च कीर्तिता ॥७१॥ क्रूरास्ते दापयित्वा तद्भक्षयित्वा च लोभिनः । गच्छन्ति नरकं साधं दातृभि|रवेदनम् ॥७२॥ जीवदानं च यत्प्रोक्तं गर्भावद्धैर्दुरात्मभिः । ऋषिमन्यैस्तदत्यन्तं निन्दितं तत्त्ववेदिभिः ॥७३॥ तस्मिन् हि दीयमानस्य वहनाङ्कनताडनैः । संपद्यते महादुःखं तेनान्येषां च भूयसाम् ॥७॥ भूमिदानमपि क्षिप्तं तद्गतप्राणिपीडनात् । प्राणिघातनिमित्तेन पुण्यं पाषाणतः पयः ॥७५॥ सर्वेषामभयं तस्माद्देयं प्राणभृतां सदा । ज्ञानं भेषजमन्नं च वस्त्रादि च गतासुकम् ॥७६॥ दानं निन्दितमप्येति प्रशंसां पात्रभेदतः । शुक्तिपीतं यथा वारि 'मुक्तीमवति निश्चयम् ॥७७।। पशुभम्यादिकं दत्तं जिनानुद्दिश्य मावतः । ददाति परमान् भोगानत्यन्तचिरकालगान् ॥७८॥ अन्तरङ्गं हि संकल्पः कारणं पुण्यपापयोः । विना तेन बहिर्दानं वर्षः पर्वतमूर्धनि ॥७९॥ वीतरागान् समस्तज्ञानतो ध्यात्वा जिनेश्वरान् । दानं यद्दीयते तस्य कः शक्तो माषितुं फलम् ॥८॥
आयुधग्रहणादन्ये देवा द्वेषसमन्विताः । रागिणः कामिनीसंगाद् भूषणानां च धारणात् ॥८१ दिया जाता है उसका क्या फल भोगनेको मिलता है ? सो कहा नहीं जा सकता ॥६८॥ अहो ! यह कितना प्रबल मोह है कि मिथ्यामतोंसे ठगाये गये लोग सभी अवस्थाओंवाले लोगोंको अपना धन दे देते हैं ॥६९।। उन दुष्टजनोंको धिक्कार है जिन्होंने कि इस भोले प्राणीको ठग रखा है तथा लोभ दिखाकर मिथ्या शास्त्रोंकी चर्चासे उसके मनको विचलित कर दिया है ।।७०॥ मीठा तथा बलकारी होनेसे पापी मनुष्योंने मांसको भक्ष्य बताया है और अपना कपट बतानेके लिए जिनका मास खाना चाहिए उनकी संख्या भी निधारित की है ॥७१॥ सो ऐसे दृष्ट लोभी जीव दूसरोंको मांस दिलाकर तथा स्वयं खाकर दाताओंके साथ-साथ भयंकर वेदनासे यक्त नरक
नरकमें जाते हैं ॥७२॥ लोभके वशीभूत, दुष्ट अभिप्रायसे युक्त तथा झूठ-मूठं ही अपने-आपको ऋषि माननेवाले कितने ही लोगोंने हाथी, घोड़ा, गाय आदि जीवोंका दान भी बतलाया है पर तत्त्वके जानकार मनुष्योंने उसकी अत्यन्त निन्दा की है ॥७३॥ उसका कारण भी यह है कि जीवदानमें जो जीव दिया जाता है उसे बोझा ढोना पड़ता है, नुकीली अरी आदिसे उसके शरीरको आँका जाता है तथा लाठी आदिसे उसे पीटा जाता है इन कारणोंसे उसे महादुःख होता है और उसके निमित्तसे बहुत-से अन्य जीवोंको भी बहुत दुःख उठाना पड़ता है ॥७४॥ इसी प्रकार भूमिदान भी निन्दनीय है क्योंकि उससे भूमिमें रहनेवाले जीवोंको पीड़ा होती है। और प्राणिपीड़ाके निमित्त जुटाकर पुण्यकी इच्छा करना मानो पत्थरसे पानी निकालना है ॥७५॥ इसलिए समस्त प्राणियोंको सदा अभयदान देना चाहिए साथ ही ज्ञान. प्रासक. औषधि, अन्न और वस्त्रादि भी देना चाहिए ॥७॥ जो दान निन्दित बताया है वह भी पात्रके भेदसे प्रशंसनीय हो जाता है. जिस प्रकार कि शुक्ति (सीप ) के द्वारा पिया हुआ पानी निश्चयसे मोती हो जाता है ॥७७।। पशु तथा भूमिका दान यद्यपि निन्दित दान है फिर भी यदि वह जिन-प्रतिमा आदिको उद्देश्य कर दिया जाता है तो वह दीर्घ काल तक स्थिर रहनेवाले उत्कृष्ट भोग प्रदान करता है ॥७८॥ भीतरका संकल्प ही पुण्यपापका कारण है उसके बिना बाह्य में दान देना पर्वतके शिखरपर वर्षा करनेके समान है ॥७९॥ इसलिए वीतराग सर्वज्ञ जिनेन्द्र देवका ध्यान कर जो दान दिया जाता है उसका फल कहनेके लिए कोन समर्थ है ?॥८०॥ जिनेन्द्रके सिवाय जो अन्य देव हैं वे द्वेषी, रागी तथा मोही हैं क्योंकि
१. सर्वविधपात्रेषु । २. धनम् । ३. गर्वावद्धेः ख.। ४. तद्गतं प्राणि- म.। ५. ज्ञानभेषजमन्नं म. ख. । ६. अमुक्ता मुक्ता संपद्यते मुक्तीभवति । ७. संकल्पं क. ।
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