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पद्मपुराणे अथवा कर्मणामेतद्वैचित्र्यं कोऽन्यथा नरः । कतुं शक्नोति तेषां हि सर्वमन्यबलाधरम् ॥४२॥ नूनं पुराकृतं कर्म भोगसंपादनक्षमम् । परिक्षयं मम प्राप्तं येनैषा वर्तते दशा ॥४३॥ वरं समर एवास्मिन्मृतः स्याच्छसंकटे । नाकीर्तिर्यत्र जायेत सर्व विष्टपगामिनी ॥४४॥ चरणं शिरसि न्यस्य शत्रणां येन जीवितम् । शत्रुणानुमतां सोऽहं सेवे लक्ष्मी कथं हरिः॥४५|| परित्यज्य सुखे तस्मादमिलापं भवोद्भवे । निश्रेयसंपदप्राप्तिकारणानि भजाम्यहम् ॥४६॥ रावणो मे महाबन्धुरागतः शत्रुवेषभृत् । येनासारसुखास्वादसक्तोऽस्मि परिबोधितः ॥४७॥ अत्रान्तरे मुनिः प्राप्तो नाम्ना निर्वाणसंगमः । विहरन् क्वापि योग्यानि स्थानानि गुणवाससाम् ॥४८॥ सहसा व्रजतस्तस्य गतिः स्तम्भमुपागता । प्रणिधाय ततश्चक्षुरधोऽसौ चैत्यमैक्षत ॥४९॥ प्रत्यक्षज्ञानसंपन्नस्तस्मिश्च जिनपुङ्गवम् । वन्दितं नमसः शीघ्रमवतीर्णा महायतिः ॥५०॥ संतोषेण च शक्रेण कृताभ्युत्थानपूजनः । चक्रे जिननमस्कार विधिना यतिसत्तमः ॥५१॥ आसीनस्य ततो जोषं वन्दित्वा चरणौ मुनेः । पुरः स्थित्वा हरिश्चक्रे चिरमात्मनिगहणम् ॥५२॥ सर्वसंसारवृत्तान्तवेदनात्यन्तकोविदैः । मुनिना परमैर्वाक्यैः परिसान्त्वनमाहृतः ॥५३॥ अपृच्छत् स भवं पूर्वमात्मनो मुनिपुङ्गवम् । स चेत्यकथयत्तस्मै गुणग्रामविभूषितः ॥५४॥ चतुर्गतिगतानेकयोनिदःखमहावने । भ्राम्यन् शिखापदामिख्ये नगरे मानुषी गतिम् ॥५५।। प्रातो जीवः कुले जातो दरिद्रे स्त्रैणसंगतः । कुलवान्तेति बिभ्राणा नामार्थेन समागतम् ॥५६॥
उत्पन्न करते थे आज सबके सब तृणके समान तुच्छ जान पड़ते हैं ॥४१॥ अथवा कर्मोंकी इस विचित्रताको अन्यथा करनेके लिए कौन मनुष्य समर्थ है ? यथार्थमें अन्य सब पदार्थ कर्मों के बलसे ही बल धारण करते हैं ॥४२॥ निश्चय ही मेरा पूर्वसंचित पुण्यकर्म जो कि नाना भोगोंकी प्राप्ति कराने में समर्थ है परिक्षीण हो चुका है इसीलिए तो यह अवस्था हो रही है ।।४३।। शत्रुके संकटसे भरे युद्ध में यदि मर ही जाता तो अच्छा होता क्योंकि उससे समस्त लोकमें फैलनेवाली अपकीर्ति तो उत्पन्न नहीं होती ॥४४॥ जिसने शत्रुओंके सिरपर पैर रखकर जीवन बिताया वह मैं अब शत्रु द्वारा अनुमत लक्ष्मीका कैसे उपभोग करूँ ? ॥४५।। इसलिए अब मैं संसार सम्बन्धी सुखकी अभिलाषा छोड़ मोक्षपदकी प्राप्तिके जो कारण हैं उन्हींकी उपासना करता हूँ ॥४६॥ शत्रुके वेशको धारण करनेवाला रावण मेरा महाबन्धु बनकर आया था जिसने कि इस असार सुखके स्वादमें लीन मुझको जागृत कर दिया ।।४७।।
इसी बीच में गुणी मनुष्योंके योग्य स्थानोंमें विहार करते हुए निर्वाणसंगम नामा चारणऋद्धिधारी मुनि वहाँ आकाशमार्गसे जा रहे थे ॥४८॥ सो चलते-चलते उनकी गति सहसा रुक गयी। तदनन्तर उन्होंने जब नीचे दृष्टि डाली तो मन्दिरके दर्शन हुए ॥४९॥ प्रत्यक्ष ज्ञानके धारी महामुनि मन्दिरमें विराजमान जिन-प्रतिमा की वन्दना करनेके लिए शीघ्र ही आकाशसे नीचे उतरे ॥५०॥ राजा इन्द्रने बड़े सन्तोषसे उठकर जिनकी पूजा की थी ऐसे उन मुनिराजने विधिपूर्वक जिनप्रतिमाको नमस्कार किया ॥५१॥ तदनन्तर जब मुनिराज जिनेन्द्रदेवकी वन्दना कर चुप बैठ गये तब इन्द्र उनके चरणोंको नमस्कार कर सामने बैठ गया और अपनी निन्दा करने लगा ॥५२॥ मुनिराजने समस्त संसारके वृत्तान्तका अनुभव करानेमें अतिशय निपुण उत्कृष्ट वचनोंसे उसे सन्तोष प्राप्त कराया ॥५३।।
अथानन्तर इन्द्रने मुनिराजसे अपना पूर्वभव पूछा सो गुणोंके समूहसे विभूषित मुनिराज उसके लिए इस प्रकार पूर्वभव कहने लगे ॥५४॥ हे राजन् ! चतुगंति सम्बन्धी अनेक योनियोंके १. सर्वमन्यबलाद्वरम् क. । २. भवेद्भुवि म.। ३. निश्रेयसः म.। ४. गतिस्तम्भ- म.। ५. परिशान्तत्व ख.। ६. जीवं म.। ७. दरिद्रस्त्रण म.। ८. कुलं कान्तेति म.।
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