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त्रयोदशं पर्व
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अशक्ताः स्वभुवं त्यक्तुं तत्र नो मित्रबान्धवाः । चातका इव सोत्कण्ठास्तिष्ठन्त्यध्वावलोकिनः ॥२९॥ कुलक्रमसमायातां सेवमानो गुणालय । लङ्कां यासि परां प्रीतिं जन्मममेः किमुच्यताम् ॥३०॥ तस्मात्तामेव गच्छामो महाभोगोद्भवावनिम् । देवानांप्रिय निर्विघ्नं रक्षता वनं चिरम् ॥३१॥ इत्युक्त्वानुगतो दूरं कैलासक्षोभकारिणा । सहस्रारो गतः सेन्द्रो लोपपालैः समं गिरिम् ॥३२॥ यथास्वं च स्थिताः सर्वे पूर्ववल्लोकपालिनः । भङ्गादसारतां प्राप्ताश्चलयन्त्रमया इव ॥३३॥ विजयार्धजलोकेन दृश्यमाना महात्रपाः । नाज्ञासिषुः क्व गच्छाम इति मोगद्विषः सुराः ॥३४॥ इन्द्रोऽपि न पुरे प्रीतिं लेभे नोद्यानभूमिषु । न दीर्घिकासु राजीवरजःपिञ्जरवारिषु ॥३५॥ न दृष्टिमपि कान्तासु चक्रे प्रगुणवर्तिनीम् । तनौ तु सकला कैव पानिर्भरचेतसः ॥३६॥ अथाप्युद्विजमानस्य तस्य लोकोऽनुवर्तनम् । चकारान्यकथासङ्गैः कुर्वन भङ्गस्य विस्मृतिम् ॥३७॥ अथैकस्तम्भमूर्धस्थे स्वसमान्तरवर्तिनि । गन्धमादनशृङ्गाभे स्थितो जिनवरालये ॥३८॥ बुधैः परिवृतो दध्याविति शक्रो निरादरम्। वहनङ्गं गतच्छायं स्मरन् भङ्गमनारतम् ॥३९॥ धिग्विद्यागोचरेश्वर्य विलीनं यदिति क्षणात् । शारदानामिवाब्दानां वृन्दमत्यन्तमुन्नतम् ॥४०॥ तानि शस्त्राणि ते नागास्ते भटास्ते तुरङ्गमाः । सर्व तृणसमं जातं मम पूर्व कृताद्भुतम् ॥४१॥
क्योंकि वह क्षण-भरके वियोगसे चित्तको आकुल करने लगती है ।।२८।। हम अपनी भूमिको छोड़नेके लिए असमर्थ हैं क्योंकि वहाँ हमारे मित्र तथा भाई-बान्धव चातककी तरह उत्कण्ठासे युक्त हो मार्ग देखते हुए स्थित होंगे ।।२९॥ हे गुणालय! आप भी तो अपनी कुल-परम्परासे चली आयी लंकाकी सेवा करते हुए परम प्रीतिको प्राप्त हो रहे हैं सो बात ही ऐसी है जन्मभूमिके विषयमें क्या कहा जाये ?।३०।। इसलिए हम जहाँ महाभोगोंकी उत्पत्ति होती है अपनी उसी भूमिको जाते हैं । हे देवोंके प्रिय ! तुम चिरकाल तक संसारकी रक्षा करो ॥३१॥
इतना कहकर सहस्रार इन्द्र नामा पुत्र तथा लोकपालोंके साथ विजयाध पर्वतपर चला गया। रावण भेजनेके लिए कुछ दूर तक उसके साथ गया ॥३२॥ सब लोकपाल पहलेकी तरह ही अपने-अपने स्थानोंपर रहने लगे परन्तु पराजयके कारण निःसार हो गये और चलते-फिरते यन्त्रके समान जान पड़ने लगे ॥३३।। बहुत भारी लज्जासे भरे देव लोगोंकी ओर जब विजयावासी लोग देखते थे तब वे यह नहीं जान पाते थे कि हम कहां जा रहे हैं ? इस तरह देव लोग सदा भोगोंसे उदास रहते थे ॥३४॥ इन्द्र भी न नगरमें, न बाग-बगीचोंमें और न कमलोंकी परागसे पीले जलवाली वापिकाओंमें ही प्रीतिको प्राप्त होता था अर्थात् पराजयके कारण उसे कहीं अच्छा नहीं लगता था ॥३५॥ अब वह स्त्रियोंपर भी अपनी सरल दृष्टि नहीं डालता था फिर शरीरको तो गिनती ही क्या थी ? उसका चित्त सदा लज्जासे भरा रहता था ।।३६।। यद्यपि लोग अन्यान्य कथाओंके प्रसंग छेड़कर उसके पराजय सम्बन्धी दुःखको भुला देनेके लिए सदा अनुकूल चेष्टा करते थे तो भी उसका चित्त स्वस्थ नहीं होता था ॥३७॥
___अथानन्तर एक दिन इन्द्र, अपने महलको भीतर विद्यमान, एक खम्भेके अग्रभागपर स्थित, गन्धमादन पर्वतके शिखरके समान सुशोभित जिनालयमें बैठा था ॥३८॥ विद्वान् लोग उसे घेरकर बैठे थे। वह निरन्तर पराजयका स्मरण करता हुआ शरीरको निरादर भावसे धारण कर रहा था। बैठे-बैठे ही उसने इस प्रकार विचार किया कि ॥३९॥ विद्याओंसे सम्बन्ध रखनेवाले इस ऐश्वर्यको धिक्कार है जो कि शरद् ऋतुके बादलोंके अत्यन्त उन्नत समूहके समान क्षण-भर में विलीन हो गया ।।४०।। वे शस्त्र, वे हाथी, वे योद्धा और वे घोड़े जो कि पहले मुझे आश्चर्य १. गुणालयां ख. । गुणालयः म.। २. जन्मभूमिः म.। ३. महाभागो भवावनिम् म.। ४. अथाप्युद्विग्नमनसस्तस्य ख.। ५. वदन्नङ्गं म.।
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