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त्रयोदशं पर्व
ततः शक्रस्य सामन्ताः स्वामिदुःखसमाकुलाः । पुरस्कृतसहस्राराः प्राप्ता रावणमन्दिरम् ॥१॥ प्रविष्टाश्च प्रतीहारज्ञापिता विनयान्विताः। प्रणम्य च स्थिता दत्तेष्वासनेषु यथोचितम् ॥२॥ दृष्टोऽथ गौरवेणोचे सहस्रारो दशाननम् । जितस्तातस्त्वया शक्रो मञ्जेदानी गिरा मम ॥३॥ बाह्वोः पुण्यस्य चोदात्तं सामथ्र्य दर्शितं त्वया । परगर्वापसादं हि समीहन्ते नराधिपाः ॥४॥ इत्युक्त लोकपालानां वदनेभ्यः समुत्थितः । शब्दोऽयमेव विस्पष्टः प्रतिनिःस्वनसंनिमः ॥५॥ लोकपालानथोवाच विहस्योद्वासितान्तकः । समयोऽस्ति विमञ्चामि येन नाथं दिवौकसाम् ॥६॥ अद्य प्रभृति मे सर्व यूयं कर्म यथोचितम् । संमार्जनादि सेवध्वं सर्वमन्तर्बहिःपुरः ॥७॥ पुरीयं सांप्रतं कृत्या भवद्भिः प्रतिवासरम् । परागाशुचिपाषाणतृणकण्टकवर्जिता ॥८॥ गृहीत्वा कुम्भमिन्द्रोऽपि वारिणा मोदचारुगा। महीं सिञ्चतु कमदमस्य लोके प्रकीर्त्यते ॥९॥ पञ्चवर्णैश्च कुर्वन्तु पुष्पैर्गन्धमनोहरैः । संभ्रान्ताः प्रकरं देव्यः सर्वालंकारभूषिताः ॥१०॥ समयेनामुना युक्ता यदि तिष्ठन्ति सादराः । विमुञ्चामि ततः शक्रं कुतो निर्मुक्तिरन्यथा ॥११॥ इत्युक्त्वा वीक्षमाणोऽसौ लोकपालांस्त्रपानतान् । जहास मुहुरातानां ताडयन् पाणिना करम् ॥१२॥ ततो विनयनम्रः सन् सहस्रारमवोचत । समाहृदयहारिण्या क्षरन्निव गिरामृतम् ।।१३।। यथा तात प्रतीक्ष्यस्त्वं वासवस्य तथा मम । अधिकं वा ततः कुर्या कथमाज्ञाविलवनम् ।।१४।।
अथानन्तर स्वामीके दुःखसे आकुल इन्द्रके सामन्त, सहस्रारको आगे कर रावणके महल में पहुँचे ।।१।। द्वारपालके द्वारा समाचार देकर बड़ी विनयसे सबने भीतर प्रवेश किया और सब प्रणाम कर दिये हुए आसनोंपर यथायोग्य रीतिसे बैठ गये ॥२॥ तदनन्तर रावणने सहस्रारकी ओर बड़े गौरवसे देखा । तब सहस्रार रावणसे बोला कि तूने मेरे पुत्र इन्द्र को जीत लिया है अब मेरे कहनेसे छोड़ दे ॥३।। तूने अपनी भुजाओं और पुण्यकी उदार महिमा दिखलायी सो ठीक ही है क्योंकि राजा दूसरेके अहंकारको नष्ट करनेकी ही चेष्टा करते हैं ।।४॥ सहस्रारके ऐसा कहनेपर लोकपालोंके मुखसे भी यही शब्द निकला सो मानो उसके शब्द की प्रतिध्वनि ही निकली थी ॥५॥ तदनन्तर रावणने हँसकर लोकपालोंसे कहा कि एक शर्त है उस शर्तसे ही मैं इन्द्रको छोड़ सकता हूँ ॥६॥ वह शर्त यह है कि आजसे लेकर तुम सब, मेरे नगरके भीतर और बाहर बुहारी देना आदि जो भी कार्य हैं उन्हें करो ॥७॥ अब आप सबको प्रतिदिन ही यह नगरी धूलि, अशुचिपदार्थ, पत्थर, तृण तथा कण्टक आदिसे रहित करनी होगी ॥८॥ तथा इन्द्र भी घड़ा लेकर सुगन्धित जलसे पृथिवी सींचें। लोकमें इसका यही कार्य प्रसिद्ध है ।।९।। और सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित इनकी सम्भ्रान्त देवियाँ पंचवर्णके सुगन्धित फूलोंसे नगरी को सजावें ॥१०॥ यदि आप लोग आदरके साथ इस शर्तसे युक्त होकर रहना चाहते हैं तो इन्द्रको अभी छोड़ देता हूँ। अन्यथा इसका छूटना कैसे हो सकता है ? ||११|| इतना कह रावण लज्जासे झुके हुए लोकपालोंकी ओर देखता तथा आप्तजनोंके हाथको अपने हाथमें ताडित करता हआ बार-बार हंसने लगा ॥१२॥
तदनन्तर उसने विनयावनत होकर सहस्रारसे कहा। उस समय रावण सभाके हृदयको हरनेवाली अपनी मधुर वाणीसे मानो अमृत ही झरा रहा था ॥१३।। उसने कहा कि हे तात ! जिस प्रकार आप इन्द्रके पूज्य हैं उसी प्रकार मेरे भी पूज्य हैं, बल्कि उससे भी अधिक। इसलिए
१. पुरस्कृत्य ब. । २. बहोः ख. । ३. कृत्वा
म.। ४. महं न ते म. ।
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