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पद्मपुराणे सखी विचित्रमालाख्यामेकान्ते चेत्यभाषत । शृणु सुन्दरि काऽस्त्यन्या सखी प्राणसमा मम ॥१९॥ समानं ख्याति येनातः सखिशब्दः प्रवर्तते । अतो न मे मतभेदं कर्तमर्हसि शोभने ॥१०॥ नियमात् कुरुषे यस्माद्दक्षे मस्कार्यसाधनम् । ततो ब्रवीमि सख्यो हि जीवितालम्बनं परम् ॥१०॥ एवमुक्ता जगादासौ किमेवं देवि भाषसे । भृत्याहं विनियोक्तव्या त्वया वाञ्छितकर्मणि ॥१०॥ न करोमि स्तुतिं स्वस्य सा हि लोकेऽतिनिन्दितो । एतावन्नु ब्रवीम्येषा सिद्धिरेवास्मि रूपिणी ॥१०३।। वद विश्रब्धिका भूत्वा यत्ते मनसि वर्तते । मयि सत्यां वृथा खेदः स्वामिन्या धार्यते त्वया ॥१०॥ उपरम्भा ततोऽवादीनिश्वस्यायतमन्थरम् । पद्माभे चन्द्रमाकान्तं करे न्यस्य कपोलकम् ।।१०५।। निष्क्रान्तस्तम्भितान् वर्णान् प्रेरयन्ती पुनः पुनः। आरूढपतितं धाय कृच्छानिदधती मनः॥१०६॥ सखि बाल्यत आरभ्य रावणे मेन्मनो गतम् । लोकावतायिनस्तस्य गुणाः कान्ता मया श्रुताः ॥१०७॥ अप्रगल्भतया प्राप्ता साहमप्रियसंगमम् । वहामि परमप्रीतेः पश्चात्तापमनारतम् ॥१०॥ जानामि च तथा नैतत्प्रशस्यमिति रूपिणि । तथापि मरणं सोढुं नास्मि शक्ता सुभाषिते ॥१०९॥ सोऽयमासन्न देशस्थो वर्तते मे मनोहरः । कथंचिदमुना योगं प्रसीद कुरु मे सखि ॥११०॥
एषा नमामि ते पादावित्युक्ता तावदुद्यता । शिरो नमयितुं तावत्सख्या तत्संभ्रमाद्धेतम् ॥१११॥ उत्कण्ठाको प्राप्त रहती है उसी प्रकार वह भी रावणके विषयमें परम उत्कण्ठाको प्राप्त हुई ॥९८॥ उसने एकान्तमें विचित्रमाला नामक सखीसे कहा कि हे सुन्दरि, सुन। तुझे छोड़कर मेरी प्राण तुल्य दूसरी सखी कौन है ? ॥९९|| जो समान बात कहे वहीं सखी शब्द प्रवृत्त होता है अर्थात् समान बात कहनेवाली ही सखी कहलाती है इसलिए हे शोभने ! तू मेरी मनसाका भेद करनेके योग्य नहीं है ॥१००।। हे चतुरे ! तू अवश्य ही मेरा कार्य सिद्ध करती है इसलिए तुझसे कहती हूँ। यथार्थमें सखियाँ ही जीवनका बड़ा आलम्बन हैं-सबसे बड़ा सहारा हैं ॥१०१॥ ऐसा कहनेपर विचित्रमालाने कहा कि हे देवि! आप ऐसा क्यों कहती हैं। मैं तो आपकी दासी हूँ, मुझे आप इच्छित कार्यमें लगाइए ॥१०२॥ मैं अपनी प्रशंसा नहीं करती क्योंकि लोकमें उसे निन्दनीय बताया है पर इतना अवश्य कहती हूँ कि मैं साक्षात् रूपधारिणी सिद्धि हो हूँ ॥१०३॥ जो कुछ तुम्हारे मनमें हो उसे निःशंक होकर कहो मेरे रहते आप खेद व्यर्थ हो उठा रही हैं ॥१०४॥ तदनन्तर उपरम्भा लम्बी और धीमी साँस लेकर तथा कमल तुल्य हथेलीपर चन्द्रमाके समान सुन्दर कपोल रखकर कहने लगी ।।१०५॥ जो अक्षर उपरम्भाके मुखसे निकलते थे वे लज्जाके कारण बीचबीच में रुक जाते थे अतः वह उन्हें बार-बार प्रेरित कर रही थी-तथा उसका मन धृष्टताके ऊपर बार-बार चढ़ता और बार-बार गिरता था सो उसे वह बड़े कष्टसे धष्टताके ऊपर स्थित कर रही थी॥१०६। उसने कहा कि हे सखि ! बाल्य अवस्थासे ही मेरा मन रावणमें लगा हुआ है । यद्यपि मैंने उसके समस्त लोकमें फैलनेवाले मनोहर गुण सुने हैं तो भी मैं उसका समागम प्राप्त नहीं कर सकी। किन्तु उसके विपरीत भाग्यकी मन्दतासे मैं नलकूबरके साथ अप्रिय संगमको प्राप्त हुई हूँ सो अप्रीतिके कारण निरन्तर भारी पश्चात्तापको धारण करती रहती हूँ॥१०७-१०८॥ हे रूपिणि ! यद्यपि मैं जानती हूँ कि यह कार्य प्रशंसनीय नहीं है तथापि हे सुभाषिते ! मैं मरण सहन करनेके लिए भी समर्थ नहीं हूँ ॥१०९।। मेरे मनको हरण करनेवाला वह रावण इस समय निकट ही स्थित है इसलिए हे सखि ! मुझपर प्रसन्न हो और इसके साथ किसी तरह मेरा समागम करा ॥११०।। 'यह मैं तेरे चरणोंमें नमस्कार करती हूँ' इतना कहकर ज्योंही वह शिर झुकानेके १. कास्त्यन्यसखी ख., म.। २. निन्दिताः म. । ३. निश्चिन्ता। ४. चन्द्रवत्सुन्दरं । ५. मे मनो म.। ६. लोकावगामिनः म. । लोकविस्तारिणः । ७. परम् + अप्रीतेः। परमं प्रीतेः ख., ब., म... ८. नमायितं म.।
९. संभ्रमावृतम् म.। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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