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द्वादशं पर्व
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वज्रवेगः प्रहस्तोऽथ हस्तो मारीच उद्भवः । वज्रवक्त्रः शुको घोरः सारणो गगनोज्ज्वलः ॥१९६॥ महाजठरसंध्याभ्रकरप्रभृतयस्तथा । सुसंनद्धाः सुयानाश्च सुशस्त्राश्च पुरःस्थिताः ॥१९७॥ ततस्तैरुस्थितैः सैन्यं सुराणां क्षणमात्रतः । कृतं विहतवित्रस्तशस्त्रसंगतशत्रुकम् ॥१९८॥ भज्यमानं ततः सैन्यवक्त्रं दृष्ट्वा महासुराः । उत्थिता योद्धमत्युग्रकोपापूरितविग्रहाः ॥१९९॥ मेघमाली तडिपिङ्गो ज्वलिताक्षोऽरिसंज्वरः । पावकस्यन्दनाद्याश्च सुराः प्रकटतां ययुः ॥२०॥ उत्थाय राक्षसास्तैस्ते मुञ्चद्भिः शस्त्रसंहतिम् । अवष्टब्धाः समुद्भुततीवकोपातिमासुरैः ॥२०१॥ ततो भङ्ग परिप्राप्ताश्चिरं कृतमहाहवाः । प्रत्येक राक्षसा देवैर्बहुभिः कृतवेष्टनाः ॥२०२॥ आवर्तेष्विव निक्षिप्ता राक्षसा वेगशालिषु । बभ्रमुर्विगलच्छस्त्रशिथिलस्थितपाणयः ॥२०॥ परावृत्तास्तथाप्यन्ये राक्षसा मानशालिनः । प्राणानमिमुखीभूता मुञ्चन्ति न तु सायकान् ॥२०४॥ ततोऽवसादनाद् भग्नं दृष्ट्वा तद्रक्षसां बलम् । सूनुर्महेन्द्रसेनस्य कपिकेतोर्महाबलः ॥२०५॥ दक्षः प्रसझकीाख्यां धारयन्नर्थसंगताम् । त्रासयन् द्विषतां सैन्यं जन्यस्य शिरसि स्थितम् ॥२०६॥ रक्षता बलमात्मीयं तेन तत्रेदृशं बलम् । शूरैः पराङ्मुखं चक्रे निष्कामगिरनन्तरम् ॥२०७॥ अतिमानं ततो भूरि विजयानिवासिनाम् । सैन्यं प्राप्तं महोत्साहं नानाशस्त्रसमुज्ज्वलम् ॥२०८॥ दष्दैव कपिलक्ष्मास्य ध्वजे छत्रे च मीषणम् । अवाप मानसे भेदं विजयार्धाद्रिजं बलम् ॥२०९॥ तत्तेन विशिखैः पश्चात्स्फुरत्तेजःशिखैः क्षणात् । भिन्नं कुतीर्थहृदयं यथा मन्मथविभ्रमैः ॥२१०॥
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अग्रभागका विनाश देख प्रबल पराक्रमके धारक राक्षस कुपित हो अपनी सेनाके आगे आ डटे ॥१९५।। वज्रवेग, प्रहस्त, हस्त, मारीच, उद्भव, वज्रमुख, शुक, घोर, सारण, गगनोज्ज्वल, महाजठर, सन्ध्याभ्र और क्रूर आदि राक्षस आ-आकर सेनाके सामने खड़े हो गये । ये सभी राक्षस कवच आदिसे युक्त थे, उत्तमोत्तम सवारियोंपर आरूढ़ थे और अच्छे-अच्छे शस्त्रोंसे युक्त थे ॥१९६-१९७।। तदनन्तर इन उद्यमी राक्षसोंने देवोंकी सेनाको क्षणमात्रमें मारकर भयभीत कर दिया। उसके छोड़े हुए अस्त्र-शस्त्र शत्रुओंके हाथ लगे ॥१९८॥ तब अपनी सेनाके अग्रभागको नष्ट होता देख बड़े-बड़े देव युद्ध करनेके लिए उठे। उस समय उन सबके शरीर अत्यन्त तीव्र क्रोधसे भर रहे थे ॥१९९।। मेघमाली, तडित्पिग, ज्वलिताक्ष, अरिसंज्वर और अग्निरथ आदि देव सामने आये ॥२००॥ जो शस्त्रोंके समूहकी वर्षा कर रहे थे और उत्पन्न हुए तीन क्रोधसे अतिशय देदीप्यमान थे ऐसे देवोंने उठकर राक्षसोंको रोका ॥२०१।। तदनन्तर चिरकाल तक युद्ध करनेके बाद राक्षस भंगको प्राप्त हुए। एक-एक राक्षसको बहुत-से देवोंने घेर लिया ॥२०२।। वेगशाली भँवरोंमें पड़े हुएके समान राक्षस इधर-उधर घूम रहे थे तथा उनके ढीले हाथोंसे शस्त्र छूट-फूटकर नीचे गिर रहे थे ॥२०३॥ कितने ही राक्षस युद्धसे पराङ्मुख हो गये पर जो अभिमानी राक्षस थे वे सामने आकर प्राण तो छोड़ रहे थे पर उन्होंने शस्त्र नहीं छोड़े ॥२०४।। तदनन्तर देवोंकी विकट मारसे राक्षसोंकी सेनाको नष्ट होता देख वानरवंशी राजा महेन्द्रका महाबलवान् पुत्र, जो कि अत्यन्त चतुर था और प्रसन्नकीर्ति इस सार्थक नामको धारण करता था, युद्धके अग्रभागमें स्थित शत्रुओंकी. सेनाको भयभीत करता हुआ सामने आया ॥२०५-२०६॥ अपनी सेनाकी रक्षा करते हुए उसने निरन्तर निकलनेवाले बाणोंसे शत्रुको सेनाको पराङ्मुख कर दिया ॥२०७॥ विजयाध पर्वतपर रहनेवाले देवोंकी जो सेना नाना प्रकारके शस्त्रोंसे देदीप्यमान थी वह प्रथम तो प्रसन्नकीतिसे अत्यधिक महान् उत्साहको प्राप्त हुई ॥२०८।। पर उसके बाद ही जब उसने उसकी ध्वजा और छत्रमें वानरका चिह्न देखा तो उसका मन टूक-टूक हो गया ॥२०९।। तदनन्तर १. सुसंबद्धाः म.। २. सुपानाश्च म.। ३. सुशास्त्राश्च म.। ४. विहतवित्रस्तं शस्त्रसंघातशत्रुकम् म. । ५. -स्तैस्तै- ख. । ६. शिथिलास्थितपाणयः म. । ७. भङ्गं म.। ८. छत्रेण म. ।
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