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द्वादशं प
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एवं गतेऽपि संधानं रावणेन समं कुरु । तस्मिन् सति जगत्सर्वं विधत्स्वोतकण्टकम् ॥१६८॥ रूपिणीं च सुतां तस्मै यच्छ रूपवतीं सुताम् । एवं सति न दोषोऽस्ति तथावस्था च राजताम् ॥ १६९॥ विविक्तधिषणेनासाविति पित्रा प्रचोदितः । रोषराशिवशोदारशोणचक्षुः क्षणादभूत् ॥ १७० ॥ शेषज्वलन संतापसंजात स्वेदसंततिः । वभाण भासुरः शक्रः स्फोटयन्निव खं गिरा ॥ १७१ ॥ वध्यस्य दीयते कन्येत्येतत्तात क्व युज्यते । प्रकृष्टवयसां पुंसां धीर्यात्येवाथवा क्षयम् ॥ १७२ ॥ वद केनाधरस्तस्मादहं जनक वस्तुना । अत्यन्तकातरं वाक्यं येनेदं भाषितं त्वया ॥ १७३ ॥ खेरपि कृतस्पर्शः पादैर्मूर्ध्नाति' खिद्यते । 'योगे स कथमम्यस्य तुङ्गः प्रणतिमाचरेत् ॥१७४॥ पौरुषेणाधिकस्तावदेतस्मान्नितरामहम् । दैवं तस्यानुकूलं ते कथं बुद्धाववस्थितम् ॥ १७५ ॥ विजिता बहवोऽनेन विपक्षा इति वेन्मतिः । हतानेककुरङ्ग किं शबरो हन्ति नो हरिम् ॥ १७६ ॥ संग्रामे शस्त्रसंपातजातज्वलनजालके । वरं प्राणपरित्यागो न तु प्रतिनरानतिः ॥ १७७॥ सोऽयमिन्द्रो दशास्यस्य राक्षसस्यानतिं गतः । इति लोके च हास्यत्वं न दृष्टं मे कथं त्वया ॥१७८॥ नभश्चरत्व सामान्यं न च संधानकारणम् । वनगोचरसामान्यं यथा सिंहशृगालयोः ॥ १७९ ॥ इति ब्रुवत एवास्य शब्द: पूरितविष्टपः । प्रविष्टः श्रोत्रयोः शत्रुबलजो 'वासरानने ॥१८०॥
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पढ़नेवाले छात्रों में से कुछ तो सफल हो जाते हैं और कुछ कर्मोंकी विवशतासे सफल नहीं हो पाते || १६७ | ऐसी स्थिति आनेपर भी तुम रावणके साथ सन्धि कर लो क्योंकि सन्धिके होनेपर तुम समस्त संसारको निष्कण्टक बना सकते हो ॥ १६८ ॥ | साथ ही तू रूपवती नामकी अपनी सुन्दरी पुत्री रावणके लिए दे दे । ऐसा करनेमें कुछ भी दोष नहीं है। बल्कि ऐसा करनेसे तेरी यही दशा बनी रहेगी || १६९ || पवित्र बुद्धिके धारक पिताने इस प्रकार इन्द्रको समझाया अवश्य परन्तु क्रोधके समूहके कारण उसके नेत्र क्षण-भर में लाल-लाल हो गये ||१७० ॥ क्रोधाग्निके सन्तापसे जिसके शरीरमें पसीने की परम्परा उत्पन्न हो गयी थी ऐसा देदीप्यमान इन्द्र अपनी वाणीसे मानो आकाशको फोड़ता हुआ बोला कि हे तात ! जो वध करने योग्य है उसीके लिए कन्या दी जावे यह कहाँ तक उचित है ? अथवा वृद्ध पुरुषोंकी बुद्धि क्षीण हो ही जाती है ॥१७१ - १७२॥ हे तात ! कहो तो सही मैं किस वस्तु उससे हीन हूँ ? जिससे आपने यह अत्यन्त दीन वचन कहे हैं || १७३ || जो मस्तकपर सूर्यकी किरणोंका स्पर्श होनेपर भी अत्यन्त खेदखिन्न हो जाता है वह उदार मानव मिलनेर अन्य पुरुषके लिए प्रणाम किस प्रकार करेगा ? || १७४ | मैं पुरुषार्थ की अपेक्षा रावणसे हर एक बात में अधिक हूँ फिर आपकी बुद्धिमें यह बात कैसे बैठ गयी कि भाग्य उसके अनुकूल है ? || १७५ ।। यदि आपका यह ख्याल है कि इसने अनेक शत्रुओंको जीता है तो अनेक हरिणोंको मारनेवाले सिंहको क्या एक भील नहीं मार देता ? || १७६ || शस्त्रोंके प्रहारसे जहाँ ज्वालाओंके समूह उत्पन्न हो रहे हैं ऐसे युद्धमें प्राणत्याग करना भी अच्छा है पर शत्रुके लिए नमस्कार करना अच्छा नहीं है ॥ १७७॥ ' वह इन्द्र रावण राक्षसके सामने नम्र हो गया' इस तरह लोकमें जो मेरी हँसी होगी उस ओर भी आपने दृष्टि क्यों नहीं दी ? || १७८ || ' वह विद्याधर है और मैं भी विद्याधर हूँ' इस प्रकार विद्याधरपनाकी समानता सन्धिका कारण नहीं हो सकती । जिस प्रकार सिंह और शृगाल में वनचारित्वकी समानता होनेपर भी एकता नहीं होती है उसी प्रकार विद्याधरपनाकी समानता होनेपर भी हम दोनोंमें एकता नहीं हो सकती ॥ १७९ ॥ इस प्रकार प्रातःकाल के समय इन्द्र पिता के समक्ष कह रहा था कि उसी समय समस्त संसारको व्याप्त करनेवाला शत्रु सेनाका जोरदार शब्द उसके कानोंमें प्रविष्ट हुआ ॥ १८० ॥
। ४. १७० तमः श्लोकः
१. राजते ब. । राज्यतां म. । राजता क. । २. प्रबोधितः म । ३. वशोद्दार - म ख. पुस्तके नास्ति । ५. मूर्ध्नाभि-ख. । ६. यो मेरुः ख., म. । ७. ते कथं मया म. । ८. प्रातःकाले ।
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