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पद्मपुराणे गतमूर्छस्तु संक्रुद्धः श्रीमाली भृशभीषणः । किरन् प्रहरणवातं जयन्ताभिमुखो ययौ ॥२३॥ मुञ्चन्तौ हेतिजालं तौ कुमारौ रेजतुस्तराम् । सिंहार्भकाविवोद्धृतदीप्तकेसरसंचयौ ॥२३९॥ ततो माल्यवतः पुत्रः सुरराजस्य सूनुना । स्तनान्तरे हतो गाढं गदया पतितो भुवि ॥२४॥ वदनेन ततो रक्तं विमुञ्चन् धरणीं गतः । अस्तंगत इवामाति कमलाकरबान्धवः ॥२४१॥ हेतश्रीमालिकः प्राप्य रथं वासवनन्दनः । दध्मौ शङ्ख मुदा भीता राक्षसाश्च विदद्ववुः ॥२४॥ माल्यवत्तनयं दृष्ट्वा ततो निर्गतजीवितम् । जयन्तं च सुसन्नद्धं तोषमुक्तभटस्वनम् ॥२४३।। आश्वासयन्निजं सैन्यं पलायनपरायणम् । इन्द्रजित्संमुखीभूतो जयन्तस्योत्कटो रुषा ।।२४४॥ ततोऽमिभवने सक्तं जनानां तं कलिं यथा। जयन्तमिन्द्रजिच्चक्रे जर्जरं वैर्भवच्छरैः ॥२४५।। दृष्ट्वा च छिन्नवर्माणं रुधिरारुणविग्रहम् । जयन्तं शरसंघातैः प्राप्त शैललितुल्यताम् ॥२४६॥ अमरेन्द्रः स्वयं योद्धमुत्थितश्छादयन्नमः । नीरन्ध्र वाहनैरुग्रैरायुधैश्च चलस्करैः ॥२४७।। अवादीत् सारथिश्चैवं रावणं संमतिश्रुतिः । अयं स देव संप्राप्तः स्वयं नाथो दिवौकसाम् ।।२४८॥ चक्रेण लोकपालानां परितः कृतपालनः । मत्तैरावतपृष्ठस्थो मौलिरत्नप्रभावृतः ॥२४९॥ पाण्डुरेणोपरिस्थेन छत्रेणावृतभास्करः । क्षुब्धेन सागरेणेव सैन्येन कृतवेष्टनः ॥२५०॥
इधर राक्षसोंकी सेनामें रुदन शब्द सुनाई पड़ने लगा ॥२३७।। जब मूर्छा दूर हुई तब श्रीमाली अत्यन्त कुपित हो शस्त्रसमूहकी वर्षा करता हुआ जयन्तके सम्मुख गया। उस समय वह अत्यन्त भयंकर दिखाई देता था ॥२३८॥ शस्त्रसमूहको छोड़ते हुए दोनों कुमार ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो जिनकी चमकीली सटाओंका समूह उड़ रहा था ऐसे सिंहके दो बालक ही हों ॥२३९॥ तदनन्तर इन्द्रके पुत्र जयन्तने माल्यवान्के पुत्र श्रीमालीके वक्षःस्थलपर गदाका ऐसा प्रहार किया कि वह पृथिवीपर गिर पड़ा ॥२४०॥ मुखसे खूनको छोड़ता पृथिवीपर पड़ा श्रीमाली ऐसा जान पड़ता था मानो अस्त होता हुआ सूर्य ही हो ॥२४१॥ श्रीमालीको मारनेके बाद जयन्तने रथपर सवार हो हर्षसे शंख फूंका जिससे राक्षस भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे ॥२४२।
तदनन्तर श्रीमालीको निष्प्राण और जिसके योद्धा हर्षनाद कर रहे थे ऐसे जयन्तको आगामी युद्धके लिए तत्पर देख रावणका पुत्र इन्द्रजित् अपनी भागती हुई सेनाको आश्वासन देता हुआ जयन्तके सम्मुख आया। उस समय वह क्रोधसे बड़ा विकट जान पड़ता था ॥२४३-२४४॥ तदनन्तर इन्द्रजित्ने कलिकालकी तरह लोगोंके अनादर करने में संलग्न जयन्तको अपने बाणोंसे कवचकी तरह जर्जर कर दिया अर्थात् जिस प्रकार बाणोंसे उसका कवच जर्जर किया था उसी प्रकार उसका शरीर भी जर्जर कर दिया ॥२४५॥ जिसका कवच टूट गया था, जिसका शरीर खूनसे लाल-लाल हो रहा था और जो गड़े हुए बाणोंसे सेहीकी तुलना प्राप्त कर रहा था ऐसे जयन्तको देखकर इन्द्र स्वयं युद्ध करनेके लिए उठा। उस समय इन्द्र अपने वाहनों और चमकते हुए तीक्ष्ण शस्त्रोंसे नीरन्ध्र आकाशको आच्छादित कर रहा था ॥२४६-२४७॥ इन्द्रको युद्धके लिए उद्यत देख सन्मति नामक सारथिने रावणसे कहा कि हे देव ! यह देवोंका अधिपति इन्द्र स्वयं ही आया है ॥२४८॥ लोकपालोंका समूह चारों ओरसे इसकी रक्षा कर रहा है, यह मदोन्मत्त ऐरावत हाथीपर सवार है, मुकुटके रत्नोंकी प्रभासे आवृत है, ऊपर लगे हुए सफेद छत्रसे सूर्यको ढक रहा है, तथा क्षोभको प्राप्त हुए महासागरके समान सेनासे घिरा हुआ है ॥२४९-२५०||
१. विवोद्भूत म. । २. हतः श्रीमाली येन सः । हतः श्रीमालिकः म., क., ब. । ३. कवचवत् । ४. 'श्वावित्तु शल्यस्तल्लोम्नि शलली शललं शलम्' इत्यमरः । शलली 'सेही' इति हिन्दी । सलिलतुल्यताम् क., ख., म., ब.।
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