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द्वादशं पर्व
२८९ आलिङ्गय मित्रवत्कश्चिद्दोभ्यां गाढं महामटः । चकार विगलगक्तधारं शत्रु विजीवितम् ॥२८॥ कश्चिञ्चकार पन्थानमृजं निघ्नन् भटावलीम् । समरे पुरुषैरन्यैर्भयादकृतसंगमम् ॥२८१।। पतन्तोऽपि न पृष्ठस्य दर्शनं भटसत्तमाः। वितेरुः प्रतिपक्षस्य गर्वोत्तानितवक्षसः ॥२८२॥ अश्वै रथैर्भटै गैः पतद्धिरतिरंहसा । अश्वा रथा मटा नागा न्यपात्यन्त सहस्रशः ॥२८३।। रजोमिः शस्त्रनिक्षेपसमुद्भूतः सशोणितैः । दानाम्भसा च संच्छन्नं शक्रचारमन्नमः ॥२८॥ कश्चित्करेण संरुध्य वामेनान्त्राणि सद्भटः । तरसा खड्गमुद्यम्य ययौ प्रत्यरि मीषणः ।।२८५।। कश्चिन्निजैः पुरीतद्भिर्बद्ध वा परिकरं दृढम् । दष्टोष्ठोऽमिययौ शत्रु दृष्टाशेषकनीनिकः ॥२८६।। कश्चित्कीलालमादाय निजं रोषपरायणः । कराभ्यां द्विषतो मूर्ध्नि चिक्षेप गलितायुधः ॥२८७।। गृहीत्वा कीकसं कश्चिन्निजं छिन्नमरातिना । डुढौके तं गलद्रक्तधारांशुकविराजितः ॥२८॥ पाशेन कश्चिदानीय रिपुं युद्धसमुत्सुकः । मुमोच दूरनिर्मुक्तं रणसंभवसंभ्रमः ॥२८९॥ कश्चिच्च्युतायुधं दृष्ट्वा प्रतिपक्षमनिच्छया । डुढौके शस्त्रमुज्झित्वा न्याय्यसंग्रामतत्परः ॥२९०।। पिनाकाननलग्नेन रिपून् कश्चित्प्रतिद्विषा । जघान घनकीलालधारानिकरवर्षिणा ।।२९१॥ कश्चित्कबन्धतां प्राप्तः शिरसा स्फुटरंहसा । मुञ्चस्त दिशि कीलालं प्रतिपक्षमताडयत् ।।२९२।।
योद्धाका शस्त्र छूटकर नीचे गिर गया तब उसने मुट्ठीरूपी मुद्गरकी मारसे ही शत्रुको प्राणरहित कर दिया ॥२७९।। किसी महायोद्धाने मित्रकी तरह भुजाओंसे शत्रुका गाढ़ आलिंगन कर उसे निर्जीव कर दिया-आलिंगन करते समय शत्रुके शरीरसे खूनको धारा बह निकली थी ॥२८०॥ किसी योद्धाने योद्धाओंके समहको मारकर यद्धमें अपना सीधा मार्ग बना लिया था। भयके कारण अन्य पुरुष उसके उस मार्गमें आड़े नहीं आये थे ।।२८१॥ गर्वसे जिनका वक्षःस्थल तना हुआ था ऐसे उत्तम योद्धाओंने गिरते-गिरते भी शत्रुके लिए अपनी पीठ नहीं दिखलायी थी ।।२८२।। बड़े वेगसे नीचे गिरनेवाले घोड़ों, रथों, योद्धाओं और हाथियोंने हजारों घोड़ों, रथों, योद्धाओं और हाथियोंको नीचे गिरा दिया था ॥२८३|| शस्त्रोंके निक्षेपसे उठी हुई रुधिराक्त धूलि और हाथियों के मदजलसे आकाश ऐसा व्याप्त हो गया था मानो इन्द्रधनुषोंसे ही आच्छादित हो रहा हो ।।२८४।। कोई एक भयंकर योद्धा अपनी निकलती हुई आँतोंको बायें हाथसे पकड़कर तथा दाहिने हाथसे तलवार उठा बड़े वेगसे शत्रुके सामने जा रहा था ॥२८५।। जो ओठ चाब रहा था तथा जिसके नेत्रोंकी पूर्ण पुतलियां दिख रही थीं ऐसा कोई योद्धा अपनी ही आंतोंसे कमरको मजबूत कसकर शत्रुकी ओर जा रहा था ॥२८६॥ जिसके हथियार गिर गये थे ऐसे किसी योद्धाने क्रोधनिमग्न हो अपना खन दोनों हाथोंमें भरकर शत्रके सिरपर डाल दिया था ॥२८७॥ जो निकलते हुए खूनकी धारासे लथपथ वस्त्रोंसे सुशोभित था ऐसा कोई योद्धा शत्रुके द्वारा काटी हुई अपनी हड्डी लेकर शत्रुके सामने जा रहा था ।।२८८॥ जो युद्ध में उत्सुक तथा युद्धकालमें उत्पन्न होनेवाली अनेक चेष्टाओंओंसे युक्त था ऐसे किसी योद्धाने शत्रुको पाशमें बांधकर दूर ले जाकर छोड़ दिया ॥२८९॥
जो न्यायपूर्ण युद्ध करने में तत्पर था ऐसे किसी योद्धाने जब देखा कि हमारे शत्रुके शस्त्र नीचे गिर गये हैं और वह निरस्न हो गया है तब वह स्वयं भी अपना शस्त्र छोड़कर अनिच्छासे शत्रुके सामने गया था ॥२९०।। कोई योद्धा धनुषके अग्रभागमें लगे एवं खूनकी बड़ी मोटी धाराओंकी वर्षा करनेवाले शत्रुके द्वारा ही दूसरे शत्रुओंको मार रहा था ॥२९१॥ कोई एक योद्धा सिर कट जानेसे यद्यपि कबन्ध दशाको प्राप्त हुआ था तथापि उसने शत्रुको दिशामें वेगसे
१. संरुह्य म.। २. कनीनिकाःम,। ३. छन्न- म.। ४. विराजितं ब.। ५. तं दिशि म. ।
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