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पद्मपुराणे गजशूत्कृतनिस्सर्पच्छीकरासारसंहतिः । शस्त्रपातसमुद्भूतधूमकेतुमशीशमत् ॥२६६॥ प्रतिमागुरवो दन्ता भ्रष्टा अपि गजाननात् । पतन्तः कुर्वते भेदं भटपरधोमुखाः ॥२६७॥ प्रहारं मुञ्च भो शूर मा भूः पुरुष कातरः । प्रहारं 'मटसिंहासेः सहस्व मम सांप्रतम् ॥२६८॥ अयं मृतोऽसि मां प्राप्य गतिस्तव कुतोऽधुना । दुःशिक्षित न जानासि गृहीतुमपि सायकम् ॥२६९॥ रक्षात्मानं व्रजामुष्माद् रणकण्डूर्मुधा तव । कण्डूरेव न मे भ्रष्टा क्षतं स्वल्पं त्वया कृतम् ॥२७॥ मुधैव जीवनं भुक्तं पण्डकेन प्रभोस्त्वया । किं गर्जसि फले व्यक्तिर्भटतायाः करोम्यहम् ॥२७॥ किं कम्पसे भंज स्थैर्य गृहाण त्वरितं शरम् । दृढमुष्टिं कुरु स्रसत्खड्गोऽयं तव यास्यति ॥२७२॥ एवमादिसमालापाः परमोत्साहवर्तिनाम् । मटानामाहवे जाताः स्वामिनामग्रतो मुहुः ॥२७॥ अलसः कस्यचिद्वाहुराहतो गदया द्विषा । बभूव विशदोऽत्यन्तं क्षणनर्तनकारिणः ॥२७॥ प्रयच्छ प्रतिपक्षस्य साधुकारं मुहुः शिरः । पपात कस्यचिद्वेगनिष्कामद्भरिशोणितम् ॥२७५।। अमिद्यत शरैर्वक्षो मटानां न तु मानसम् । शिरः पपात नो मानः कान्तो मृत्युन जीवितम् ।।२७६॥ कुर्वाणा यशसो रक्षा दक्षा वीरा महौजसः । भटाः संकटमायाताः प्राणान् शस्त्रभृतोऽमुचन् ॥२७७॥ नियमाणो मटः कश्चिच्छत्रमारणकाक्षया। पपात देहमाक्रम्य रिपोः कोपेन पूरितः ॥२७८॥
च्युते शस्त्रान्तराघाताच्छस्ने कश्चिद्भटोत्तमः । मुष्टिमुद्गरघातेन चक्रे शत्रु गतासुकम् ॥२७९॥ पैदल सिपाहियोंके साथ युद्ध करनेके लिए उद्यत था ॥२६५।। हाथियोंकी शूत्कारके साथ जो जलके छींटोंका समूह निकल रहा था वह शस्त्रपातसे उत्पन्न अग्निको शान्त कर रहा था ॥२६६।। प्रतिमाके समान भारी-भारी जो दाँत हाथियोंके मुखसे नीचे गिरते थे वे गिरते-गिरते ही अनेक योद्धाओंकी पंक्तिका कचूमर निकाल देते थे ।।२६७।। अरे शूर पुरुष ! प्रहार छोड़, कायर क्यों हो रहा है ? हे सैनिकशिरोमणे ! इस समय जरा मेरी तलवारका भी तो वार सहन कर ॥२६८।। ले अब तू मरता ही है, मेरे पास आकर अब तो जा ही कहाँ सकता है ? अरे दुःशिक्षित ! तलवार पकड़ना भी तो तुझे आता नहीं है, युद्ध करनेके लिए चला है ॥२६९।। जा यहांसे भाग जा और अपने आपकी रक्षा कर । तेरी रणकी खाज व्यर्थ है, तूने इतना थोड़ा घाव किया कि उससे मेरी खाज ही नहीं गयी ॥२७०।। तुझ नपुंसकने स्वामीका वेतन व्यर्थ ही खाया है, चुप रह, क्यों गरज रहा है ? अवसर आनेपर शूरवीरता अपने आप प्रकट हो जायेगी ।।२७१।। काँप क्यों रहा है ? जरा स्थिरताको प्राप्त हो, शीघ्र ही बाण हाथमें ले, मुट्ठीको मजबूत रख, देख यह तलवार खिसककर नीचे चली जायेगी ॥२७२सा उस समय युद्ध में अपने-अपने स्वामियोंके आगे परमोत्साहसे युक्त योद्धाओंके बार-बार उल्लिखित वार्तालाप हो रहे थे ।।२७३॥ किसीकी भुजा आलस्यसे भरी थी-उठती ही नहीं थी पर जब शत्रुने उसमें गदाकी चोट जमायी तब वह क्षण-भरमें नाच उठा और उसकी भुजा ठीक हो गयी ॥२७४।। जिससे बड़े वेगसे अत्यधिक खून निकल रहा था ऐसा किसीका सिर शत्रुके लिए बार-बार धन्यवाद देता हुआ नीचे गिर पड़ा ॥२७५।। बाणोंसे योद्धाओंका वक्षःस्थल तो खण्डित हो गया पर मन खण्डित नहीं हुआ। इसी प्रकार योद्धाओंका सिर तो गिर गया पर मान नहीं गिरा। उन्हें मृत्यु प्रिय थी पर जीवन प्रिय नहीं था ॥२७६॥ जो महातेजस्वी कुशल वीर थे उन्होंने संकट आनेपर शस्त्र लिये यशकी रक्षा करते-करते अपने प्राण छोड़ दिये थे ॥२७७।। कोई एक योद्धा मर तो रहा था पर शत्रुको मारनेकी इच्छासे क्रोधयुक्त हो जब गिरने लगा तो शत्रुके शरीरपर आक्रमण कर गिरा ॥२७८॥ शत्रुके शस्त्रकी चोटसे जब किसी १. शीकराकार-म. । २. भटसहासेः म.। ३. क्लीबेन, 'तृतीया प्रकृतिः शण्डः क्लीबः पण्डो नपुंसके' इत्यमरः । पाण्डुकेन म.; पण्डुकेन क., ख., ब. । ४. भव म. । ५. कुरुस्त्रंशं म. (?) । ६. द्विषः म. ।
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