________________
पद्मपुराणे
ततोऽन्यदपि संप्राप्तं सैन्यं त्रिदशगोचरम् । कनकासिगदाशक्तिचापमुद्गरसंकुलम् ॥२११॥ ततोऽन्तराल एवातिवीरो माल्यवतः सुतः । श्रीमालीति प्रतीतात्मा पुरोऽस्य समवस्थितः ॥ २१२ ॥ तेन ते क्षणमात्रेण सुराः सूर्यसमत्विषा । क नीता इति न ज्ञाता मुञ्चता शरसंहतीः ॥ २१३॥ दृष्ट्वा तमभ्यमित्रीणमनिवार्यरयं ततः । क्षोभयन्तं द्विषां सैन्यं महाग्राहमिवार्णवम् ॥ २१४॥ मत्तद्विपेन्द्र संघट्टघटितारातिमण्डलम् । करवालकरोदारमटमण्डलमध्यगम् ॥२१५॥
अमी समुत्थिता देवा निजं पालयितुं बलम् । महाक्रोधपरीताङ्गाः समुल्लासितहेतयः ॥ २१६ ॥ शिखिकेशरिदण्डोग्रकनकप्रवरादयः । छादयन्तो नभो दूरं प्रावृषेण्या इवाम्बुदाः ॥ २१७॥ स्वस्त्रीयाश्च सुरेन्द्रस्य मृगचिह्नादयोऽधिकम् । दीप्यमाना रणोद्भूततेजसा सुमहाबलाः ॥२१८॥ ततः श्रीमालिना तेषां शिरोभिः कमलैरिव । सशैवलैर्मही छन्ना छिन्नैश्चन्द्रार्ध सायकैः ॥२१९॥ अचिन्तयत्ततः शक्रो येनैते नरपुङ्गवाः । कुमाराः क्षयमानीताः सममेभिर्वरैः सुरैः ॥२२०॥ तस्यास्य को रणे स्थातुं पुरो वान्छेद्दिवौकसाम् । राक्षसस्य ['महातेजो दुरीक्ष्यस्यातिवीर्यवान् ॥२२१॥ तस्माद्स्य स्वयं युद्धश्रद्धाध्वंसं करोम्यहम् । अपरानमरान् यावन्नयते नैष पञ्चताम् ॥२२२॥ इति ध्यात्वा समाश्वास्य ] बलं स त्रासकम्पितम् । योद्धुं समुद्यतो यावस्त्रिदशानामधीश्वरः ॥ २२३॥ जिस प्रकार कामके बाणोंसे कुगुरुका हृदय खण्डित हो जाता है उसी प्रकार जिनसे अग्निकी देदीप्यमान शिखा निकल रही थी ऐसे प्रसन्नकीर्ति के बाणोंसे देवोंकी सेना खण्डित हो गयी ॥२१० ॥ तदनन्तर देवोंकी और दूसरी सेना सामने आयी । वह सेना कनक, तलवार, गदा, शक्ति, धनुष और मुद्गर आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे युक्त थी || २११|| तत्पश्चात् माल्यवान्का पुत्र श्रीमाली जो अत्यन्त वीर और निःशंक हृदयवाला था देवोंकी सेनाके आगे खड़ा हो गया || २१२ || जिसकी सूर्य के समान कान्ति थी तथा जो निरन्तर बाणोंका समूह छोड़ रहा था ऐसे श्रीमालीने देवोंको क्षणमात्रमें कहाँ भेज दिया इसका पता नहीं चला ||२१३|| तदनन्तर जो शत्रुपक्षकी ओरसे सामने खड़ा था, जिसका वेग अनिवार्य था, जो शत्रुओंकी सेनाको इस तरह क्षोभयुक्त कर रहा था जिस प्रकार कि महाग्राह किसी समुद्रको क्षोभयुक्त करता है, जो अपना मदोन्मत्त हाथी शत्रुओंकी सेनापर हूल रहा था और जो तलवार हाथमें लिये उद्दण्ड योद्धाओंके बीचमें घूम रहा था ऐसे श्रीमालीको देखकर देव लोग अपनी सेनाकी रक्षा करनेके लिए उठे । उस समय उन सबके शरीर बहुत भारी क्रोधसे व्याप्त थे तथा उनके हाथोंमें अनेक शस्त्र चमक रहे थे || २१४२१६॥ शिखी, केशरी, दण्ड, उग्र, कनक, प्रवर आदि इन्द्रके योद्धाओंने आकाशको दूर तक ऐसा आच्छादित कर लिया जैसा कि वर्षाऋतुके मेघ आच्छादित कर लेते हैं ||२१७|| इनके सिवाय मृगचिह्न आदि इन्द्रके भानेज भी जो कि रणसे समुत्पन्न तेजके द्वारा अत्यधिक देदीप्यमान और महाबलवान थे, आकाशको दूर-दूर तक आच्छादित कर रहे थे || २१८|| तदनन्तर श्रीमालीने अपने अर्द्धचन्द्राकार बाणोंसे काटे हुए उनके सिरोंसे पृथिवीको इस प्रकार ढक दिया मानो शेवालसहित कमलोंसे ही ढक दिया हो ॥ २१९ ॥
अथानन्तर इन्द्रने विचार किया कि जिसने इन श्रेष्ठ देवोंके साथ-साथ इन नरश्रेष्ठ राजकुमारों का क्षय कर दिया है तथा अपने विशाल तेजसे जिसकी ओर आँख ऐसे इस राक्षसके आगे युद्धमें देवोंके बीच ऐसा कौन है जो सामने खड़ा सके ? इसलिए जब तक यह दूसरे देवोंको नहीं मारता है उसके पहले ही श्रद्धाका नाश कर देता हूँ ॥ २२० - २२२ ॥ ऐसा विचारकर देवोंका
उठाना भी कठिन है होनेकी भी इच्छा कर
मैं
स्वयं इसके युद्धकी स्वामी इन्द्र भयसे
२८४
१. त्विषः म । २. तमभ्रमित्रीणं म । ३. भागिनेयाः । ४. चित्रचन्दार्ध म । ५. शरैः ख. । ६.[] कोष्ठकान्तर्गतः पाठः क. पुस्तके नास्ति । ७. मृत्युम् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org