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द्वादशं पर्व
२७७
वरं स्वामिनि कामं ते साधयामि क्षणादिति । गदित्वा निर्गता गेहाद दूती ज्ञाताखिलस्थितिः ॥११२॥ साम्भोजीमूतसंकाशसूक्ष्मवस्त्रावगुण्ठिता । खमुत्पत्य क्षणात्प्राप वसतिं रक्षसां प्रभोः ॥११३॥ अन्तःपुरं प्रविष्टा च प्रतीहार्या निवेदिता । कृत्वा प्रगतिमासीना दत्ते सविनयासने ॥११॥ ततो जगाद देवस्य भुवनं सकलं गुणैः । दोषसंगोज्झितैर्व्याप्तं यत्तद्युक्तं तवेदृशः ॥११५॥ उदारो विभवो यस्ते याचकांस्तर्पयन् भुवि । कारणेनामुना वेद्मि सर्वेषां त्वां हिते स्थितम् ॥११६॥ आकारस्यास्य जानामि न ते प्रार्थनमञ्जनम् । भूतिर्मवद्विधानां हि 'परोपकृतिकारणम् ॥११७॥ स स्वमुत्सारिताशेषपरिवर्गो विमो क्षणम् । अवधानस्य दानेन प्रसादं कर्तुमर्हसि ॥१८॥ तथा कृते ततः कर्णे दशवक्त्रस्य सा जगौ । सकलं पूर्ववृत्तान्तं सर्ववृत्तान्तवेदिनी ॥११९॥ ततः पिधाय पाणिभ्यां श्रवणौ पुरुषोत्तमः । धुन्वन् शिरश्चिरं चक्षुःसंकोचं परमानयन् ॥१२०॥ विचित्रवनितावाञ्छाचिन्ताखिन्नमतिः क्षणम् । बभूव केकसीसूनुः सदाचारपरायणः ॥१२१॥ जगाद च स्मितं कृत्वा भद्रे चेतसि ते कथम् । स्थितमीदृगिदं वस्तु पापसंगमकारणम् ॥१२२॥ ईदशे याचितेऽत्यन्तं दरिद्रः किं करोम्यहम् । अभिमान परित्यज्य तथेदमुदितं त्वया ॥१२३॥ विधवा भर्तृसंयुक्ता प्रमदा कुलबालिका। वेश्या च रूपयुक्तापि परिहार्या प्रयत्नतः ॥१२४॥
विरोधवदिदं कर्म परत्रेह च जन्मनि । लोकद्वयपरिभ्रष्टः कीदृशो वद मानवः ॥१२५॥ लिए उद्यत हुई त्योंहो सखीने बड़ी शीघ्रतासे उसका शिर बीचमें पकड़ लिया ॥१११॥ 'हे स्वामिनी ! मैं आपका मनोरथ शीघ्र ही सिद्ध करती हूँ' यह कहकर सब स्थितिको जाननेवाली दूती घरसे बाहर निकली ॥११२।। सजल मेघके समान सूक्ष्म वस्त्रका घूघट धारण करनेवाली दूती आकाशमें उड़कर क्षण-भरमें रावणके डेरेमें जा पहुंची ॥११३।। द्वारपालिनीके द्वारा सूचना देकर वह अन्तःपुरमें प्रविष्ट हुई। वहाँ प्रणाम कर, रावणके द्वारा दिये आसनपर विनयसे बैठी ॥११४॥ तदनन्तर कहने लगी कि हे देव ! आपके निर्दोष गुणोंसे जो समस्त संसार व्याप्त हो रहा है वह आपके समान प्रभावक पुरुषके अनुरूप ही है ॥११५।। चूंकि आपका उदार वैभव पृथिवीपर याचकोंको सन्तुष्ट कर रहा है इस कारण मैं जानती हूँ कि आप सबका हित करनेमें तत्पर हैं ॥११६।। मैं खूब समझती हूँ कि इस आकारको धारण करनेवाले आप मेरी प्रार्थनाको भंग नहीं करेंगे। यथार्थमें आप-जैसे लोगोंकी सम्पदा परोपकारका ही कारण है ।।११७॥ हे विभो! आप क्षण-भरके लिए समस्त परिजनको दूर कर दीजिए और ध्यान देकर मुझपर प्रसन्नता कीजिए ॥११८॥
तदनन्तर जब सर्व परिजन दूर कर दिये गये और बिलकुल एकान्त हो गया तब सब वृत्तान्त जाननेवाली दूतीने रावणके कानमें पहलेका सब समाचार कहा ॥११९।।
तदनन्तर दूतीकी बात सुन रावणने दोनों हाथोंसे दोनों कान ढक लिये। वह चिर काल तक सिर हिलाता रहा और नेत्र सिकोड़ता रहा ॥१२०॥ सदाचारमें तत्पर रहनेवाला रावण परस्त्रीको वांछा सुन चिन्तासे क्षण-भरमें खिन्न चित्त हो गया ।।१२१।। उसने हँसते हुए कहा कि हे भद्रे ! पापका संगम करानेवाली यह ऐसी बात तुम्हारे मन आयौ ही कैसे ? ॥१२२।। तूने यह बात अभिमान छोड़कर कही है। ऐसी याचनाके पूर्ण करने में मैं अत्यन्त दरिद्र हूँ, क्या करूँ ? ॥१२३।। चाहे विधवा हो, चाहे पतिसे सहित हो, चाहे कुलवती हो और चाहे रूपसे युक्त वेश्या हो परस्त्री मात्रका प्रयत्न पूवक त्याग करना चाहिए ।।१२४।। यह कार्य इस लोक तथा परलोक दोनों ही जगह विरुद्ध है । तथा जो मनुष्य दोनों लोकोंसे भ्रष्ट हो गया वह मनुष्य ही क्या सो तू
१. परोपकृतिकारिणाम् ख. । परोपकृतिकर्मणाम् क. । २. परमानयत् म., ब. । ३. कुलबालिके ख. ।
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