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एकादशं पर्व
२४७
भद्र प्रव्रजितो जातः कस्ते भेदो गृहस्थतः । चारित्रं प्रतियातस्य केवलं वेषमन्यथा ॥१२५॥ यया हि छर्दितं नान्नं भुज्यते मानुषैः पुनः । तथा त्यक्तेषु कामेषु न कुर्वन्ति मतिं बुधाः ॥१२६॥ त्यक्त्वा लिङ्गी पुनः पापो योषितं यो निषेवते । सुभीमायामरण्यान्यां वृकतां स समश्नुते ॥१२७॥ सर्वारम्भस्थितः कुर्वन्नब्रह्म मदनिर्मरः । दीक्षितोऽस्मीति यो वेत्ति स्वं नितान्तं स मोहवान् ॥१२८॥ ईर्ष्यामन्मथदग्धस्य दुष्टदृष्टेर्दुरात्मनः । आरम्भे वर्तमानस्य प्रव्रज्या वद कीदृशी ॥१२९॥ कुदृष्ट्या गर्वितो लिङ्गी विषयास्रवमानसः । ब्रुवन्नहं तपस्वीति मिथ्यावादी कथं व्रती ॥१३०॥ सुखासनविहारः सन् सदाकशिपुसक्तधीः । सिद्धमन्यो विमूढात्मा जनोऽयं स्वस्य वञ्चकः ॥१३१॥ 'दह्यमाने यथागारे कथञ्चिदपि निःसृतः । तत्रैव पुनरात्मानं प्रक्षिपेन्मूढमानसः ॥१३२॥ यथा च विवरं प्राप्य निष्क्रान्तः पञ्जरात् खगः । निवृत्य प्रविशेद् भूयस्तत्रैवाज्ञानचोदितः ॥१३३॥ तथा प्रव्रजितो भूत्वा यो यातीन्द्रियवश्यताम् । निन्दितः स भवेल्लोके न च स्वार्थ समश्नुते ॥१३॥ ध्येयमेकाग्रचित्तेन सर्वग्रन्थविवर्जिना । मुनिना ध्यायते तत्वं सारम्भैन भवद्विधैः ॥१३५॥ प्राणिनो ग्रन्थसङ्गेन रागद्वेषसमुद्भवः । रागात् संजायते कामो द्वेषाजन्तुविनाशनम् ॥१३६॥ कामक्रोधाभिभूतस्य मोहेनाक्रम्यते मनः। कृत्याकृत्येषु मूढस्य मतिर्न स्याद्विवेकिनी ॥१३७।।
बन्धुओंका त्याग कर स्वयं अपने आपको इस वनके मध्य क्यों कष्टमें डाला है ? ॥१२४॥ अरे भलेमानुष ! तूने प्रव्रज्या धारण की है पर तुझमें गृहस्थसे भेद ही क्या है ? तूने जो चारित्र धारण किया था उसके तू प्रतिकूल चल रहा है। केवल वेष ही तेरा दूसरा है पर चारित्र तो गृहस्थ-जैसा ही है ॥१२५।। जिस प्रकार मनुष्य वमन किये हए अन्नको फिर नहीं खाते हैं उसी प्रकार विज्ञजन जिन विषयोंका परित्याग कर चुकते हैं फिर उनकी इच्छा नहीं करते ॥१२६।। जो लिंगधारी साधु एक बार स्त्रीका त्याग कर पुनः उसका सेवन करता है वह पापी है और मरकर भयंकर अटवीमें भेड़िया होता है ।।१२७॥ जो सब प्रकारके आरम्भमें स्थित रहता हुआ, अब्रह्म सेवन करता हुआ
और नशामें निमग्न रहता हुआ भी 'मैं दीक्षित हूँ' ऐसा अपने आपको जानता है वह अत्यन्त मोही है ।।१२८॥ जो ईर्ष्या और कामसे जल रहा है, जिसकी दृष्टि दुष्ट है, जिसकी आत्मा दूषित है, और जो आरम्भमें वर्तमान है अर्थात् जो सब प्रकारके आरम्भ करता है उसकी प्रव्रज्या कैसी ? तुम्ही कहो ॥१२९।। जो कुदृष्टि से गवित है, मिथ्यावेशधारी है, और जिसका मन विषयोंके आधीन है फिर भी अपने आपको तपस्वी कहता है वह झूठ बोलनेवाला है वह व्रती कैसे हो सकता है ? ॥१३०॥ जो सुखपूर्वक उठता-बैठता और विहार करता है तथा जो सदा भोजन एवं वस्त्रोंमें बुद्धि लगाये रखता है फिर भी अपने आपको सिद्ध मानता है वह मूर्ख अपने आपको धोखा देता है ॥१३१॥ जिस प्रकार जलते हुए मकानसे कोई किसी तरह बाहर निकले और फिरसे अपने आपको उसी मकान में फेंक दे तो वह मूर्ख ही समझा जाता है ।।१३२।। अथवा जिस प्रकार कोई पक्षी छिद्र पाकर पिंजडेसे बाहर निकल आवे और अज्ञानसे प्रेरित हो पुनः उसी में लौट आवे तो यह मूर्खता ही है ॥१३३॥ उसी प्रकार कोई मनुष्य दीक्षित होकर पुनः इन्द्रियोंकी आधोनताको प्राप्त हो जावे तो वह लोकमें निन्दित होता है और आत्मकल्याणको प्राप्त नहीं होता ॥१३४॥ जिनका चित्त एकाग्र है ऐसे सर्वपरिग्रहका त्याग करनेवाले मुनि ही ध्यान करने योग्य तत्त्वका ध्यान कर सकते हैं तुम्हारे जैसे आरम्भी मनुष्य नहीं ।।१३५।। परिग्रहकी संगतिसे प्राणीके रागद्वेषकी उत्पत्ति होती है। रागसे काम उत्पन्न होता है और द्वेषसे जीवोंका विघात होता है ।।१३६॥ जो काम
१. प्राप्नोति । २. व्यभिचारं। कुर्वन न ब्रह्म- म.। ३. भोजनाच्छादनमग्नमनाः। ४. दह्यमानो ब. । ५. यथाङ्कारःख.। ६. तत्रैव ज्ञान- म. । ७. कृत्यकृत्येषु म. ।
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