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पपपुराणे यत्किंचित्कुर्वतस्तस्य कर्मोपार्जयतोऽशुमम् । संसारसागरे घोरे भ्रमणं न निवर्तते ॥१३८॥ एतान् संसर्गजान दोषान्विदित्वाशु विपश्चितः । वैराग्यमधिगच्छन्ति नियम्यात्मानमात्मना ॥१३९॥ एवं संबोधितो वाक्यैः परमार्थोपदेशनैः । उपेतः श्रामणी दीक्षा मोहाद् ब्रह्मरुचिश्च्युतः ॥१४॥ निरक्षेपमतिः कूम्यां महावैराग्यसंमतः । विजहार सुखं साधं गुरुणा गुरुवत्सलः ॥१४॥ सापि शुद्धमतिः कुर्मी कर्मणः कृष्णतइच्युता । ज्ञात्वा रागवशं जन्तोः संसारपरिवर्तनम् ॥१४२॥ कुमार्गसङ्गमुत्सृज्य जिनभक्तिपरायणा । सिंहीव शोभतेऽरण्ये भा विरहिता सती ॥१४३॥ मासे च दशमे धीरा प्रसूता दारकं शुभम् । अचिन्तयञ्च वीक्ष्यैनं ज्ञातकर्म विचेष्टिता ॥१४॥ संपर्कोऽयमनर्थोऽसौ कथितो यन्महर्षिभिः । तस्मान्मुक्त्वाधुना सङ्गं करोमि हितमारमने ॥१४५॥ अनेनापि भवे स्वस्मिन्यः कर्मविधिरजितः । फलं तस्य शिशुभॊक्ता मनोज्ञमर्थवेतरत् ।।१४६॥ अरण्यान्यां समुद्र वा स्थितं वारातिपारे । स्वयंकृतानि कर्माणि रक्षन्ति न परो जनः ॥१४७॥ यः पुनः प्राप्तकालः स्यानन्यङ्कगतोऽपि सः । हियते मृत्युना जीवः स्वकर्मवशतां गतः ॥१४८॥ एवं विदिततत्वा सा बुद्धयातिनिरपेक्षया । बालकं विपिने त्यक्त्वा तापसी वीतमत्सरा ॥१४९॥ आनज़लोकनगरे क्षान्त्यार्यामिन्दुमालिनीम् । शरणं भूरिसंवेगाद् "भूतार्या चारुचेष्टिता ॥१५०॥
और क्रोधसे अभिभूत ही रहा है उसका मन मोहसे आक्रान्त हो जाता है और जो करने योग्य तथा न करने योग्य कर्मोंके विषयमें मूढ़ है उसकी बुद्धि विवेकयुक्त नहीं हो सकती ॥१३७।। जो मनुष्य इच्छानुसार चाहे जो कार्य करता हुआ अशुभ कर्मका उपार्जन करता है इस भयंकर संसार-सागरमें उसका भ्रमण कभी भी बन्द नहीं होता ॥१३८॥ ये सब दोष संसर्गसे ही उत्पन्न होते हैं ऐसा जानकर विद्वान् लोग अपने आपके द्वारा अपने आपका नियन्त्रण कर वैराग्यको धारण करते हैं ।।१३९।। इस प्रकार परमार्थका उपदेश देनेवाले वचनोंसे सम्बोधा गया ब्रह्मरुचि ब्राह्मण मिथ्यात्वसे च्युत हो दैगम्बरी दीक्षाको प्राप्त हुआ और अपनी कूर्मी नामक स्त्रीसे निःस्पृह हो महावैराग्यसे युक्त होता हुआ गुरुके साथ सुखपूर्वक विहार करने लगा। उसका गुरुस्नेह ऐसा ही था ॥१४०-१४१।। कूर्मीने भी जान लिया कि जीवका संसारमें जो परिभ्रमण होता है वह रागके वश ही होता है। ऐसा जानकर वह पापकार्यसे विरत हो शुद्धाचारमें निमग्न हो गयी ॥१४२।। वह मिथ्यामागियोंका संसर्ग छोड़कर सदा जिन-भक्ति में ही तत्पर रहने लगी और पतिसे रहित होनेपर भी निर्जन वनमें सिंहनीके समान सुशोभित होने लगी ॥१४३॥ उस धैर्यशालिनीने दसवें मासमें शुभ पुत्र उत्पन्न किया। पुत्रको देखकर कर्मोकी चेष्टाको जाननेवाली कूर्मीने विचार किया ॥१४४।। कि चूंकि महर्षियोंने इस सम्पर्कको अनर्थका कारण कहा था इसलिए मैं इस सम्पर्क अर्थात् पुत्रकी संगतिको छोड़कर आत्माका हित करती हूँ ॥१४५।। इस शिशुने भी अपने भवान्तरमें जो कर्मोकी विधि अर्जित की है उसका यह अच्छा या बुरा फल भोगेगा ॥१४६॥ घनघोर अटवी, समुद्र अथवा शत्रुओंके पिंजड़ेमें स्थित जन्तुकी अपने आपके द्वारा किये हुए कर्म ही रक्षा करते हैं अन्य लोग नहीं ।।१४७॥ जिसका काल आ जाता है ऐसा स्वकृत कर्मोकी आधीनताको प्राप्त हुआ जीव माताकी गोदमें स्थित होता हुआ भी मृत्युके द्वारा हर लिया जाता है ॥१४८। इस प्रकार तत्त्वको जाननेवाली तापसीने निरपेक्ष बुद्धिसे उस बालकको वनमें छोड़ दिया। तदनन्तर १. दैगम्बरीम् । २. क., ख., म. पुस्तकेषु 'मोहाद् ब्रह्मरुचिश्च्युतः' इति पाठ उपलभ्यते, न. पुस्तके तु प्राग् 'मोहाब्रह्मरुचिश्च्युतः' इत्येव पाठः स्वीकृतः पश्चात्केनापि टिप्पण की मोहात-इति पाठः शोधितः । ३. संपदः म. । ४. यो महर्षिभिः क., ख., ब.। ५. भवेद्यस्मिन् म.। ६. मभवेतरम् म.। मथवेतरं क., ख., ब.। ७. स्वयं म.। ८. जन्मन्यङ्कगतो- म.। ९. कान्त्यायमिन्दु क., ख., म.। १०. भूरिसंवेगा म. । ११. चारुचेष्टिता आर्या भूता = बभूवेति भावः ।
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