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एकादशं पवं
सुसर्वज्ञाश्च किं कुर्युरन्यथा ग्रन्थदेशनम् | अर्थस्य 'वान्यथाख्यानं प्रमाणं तन्मतं यतः ॥ १९३॥ चातुर्विध्यं च यज्जात्या तेन युक्तमहेतुकम् । ज्ञानं देहविशेषस्य ने च श्लोकाग्निसंभवात् ॥ १९४॥ दृश्यते जातिभेदस्तु यत्र तत्रास्य संभवः । मनुष्यहस्तिवालेयगोवा जिप्रभृतौ यथा ॥ १९५ ॥ न च जात्यन्तरस्थेन पुरुषेण स्त्रियां क्वचित् । क्रियते गर्भसंभूतिर्विप्रादीनां तु जायते ॥। १९६ ॥ अश्वायां रासभेनास्ति संभवोऽस्येति चेन्न सः । नितान्तमन्यजातिस्थः शफादितनुसाम्यतः ॥ १९७॥ यदि वा तद्वदेव स्याद् द्वयोर्विसदृशः सुतः । नात्र दृष्टं तथा तस्माद् गुणैर्वर्णव्यवस्थितिः ॥१९८॥ मुखादिसंभवश्चापि ब्रह्मणो योऽभिधीयते । निर्हेतुः स्वगेहेऽसौ शोमते भाषमाणकः ॥ १९९॥ ऋषिश्टङ्गादिकानां च मानवानां प्रकीर्त्यते । ब्राह्मण्यं गुणयोगेन न तु तद्योनिसंभवात् ॥ २००॥ बृहत्त्वाद् भगवान् ब्रह्मा नाभेयस्तस्य ये जनाः । भक्ताः सन्तस्तु पश्यन्ति ब्राह्मणास्ते प्रकीर्तिताः ॥ २०१ ॥ क्षत्रियास्तु क्षतत्राणाद् वैश्याः शिल्पप्रवेशनात् । श्रुतात् सदागमाद् ये तु द्रुतास्ते शूद्रसंज्ञिताः ॥ २०२॥
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कर्ता नहीं हैं किन्तु प्रवक्ता अर्थात् प्रवचन करनेवाले हैं तो वे प्रवचनकर्ता आपके मतसे रागद्वेषादिसे युक्त ही ठहरेंगे || १९२|| और यदि सर्वज्ञ हैं तो वे ग्रन्थका अन्यथा उपदेश कैसे देंगे और अन्यथा व्याख्यान कैसे करेंगे, क्योंकि सर्वज्ञ होनेसे उनका मत प्रमाण है । इस प्रकार विचार करनेपर सर्वज्ञकी ही सिद्धि होती है ॥ १९३॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रके भेदसे जो जातिके चार भेद हैं वे बिना हेतुके युक्तिसंगत नहीं हैं । यदि कहो कि वेदवाक्य और अग्निके संस्कारसे दूसरा जन्म होनेके कारण उनके देहविशेषका ज्ञान होता है सो यह कहना भी युक्त नहीं है || १९४|| हाँ, जहाँ-जहाँ जाति-भेद देखा जाता है वहाँ-वहाँ शरीर में विशेषता अवश्य पायी जाती है जिस प्रकार कि मनुष्य, हाथी, गधा, गाय, घोड़ा आदिमें पायी जाती है || १९५ || इसके सिवाय दूसरी बात यह है कि अन्य जातीय पुरुषके द्वारा अन्य जातीय स्त्री में गर्भोत्पत्ति नहीं देखी जाती परन्तु ब्राह्मणादिक में देखी जाती है । इससे सिद्ध है कि ब्राह्मणादिक में जातिवैचित्र्य नहीं है || १९६ || इसके उत्तरमें यदि तुम कहो कि गधेके द्वारा घोड़ीमें गर्भोत्पत्ति देखी जाती है, इसलिए उक्त युक्ति ठीक नहीं है ? तो ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि गधा और घोड़ा दोनों अत्यन्त भिन्न जातीय नहीं है क्योंकि एक खुर आदिको अपेक्षा उनके शरीरमें समानता पायी जाती है ॥ १९७॥ अथवा दोनोंमें भिन्नजातीयता ही है यदि ऐसा पक्ष है तो दोनोंकी जो सन्तान होगी वह विसदृश ही होगी जैसे कि गधा और घोड़ीके समागमसे जो सन्तान होगी वह न घोड़ा ही कहलावेगी और न गधा ही । किन्तु खच्चर नामकी धारक होगी किन्तु इस प्रकार सन्तानकी विसदृशता ब्राह्मणादिमें नहीं देखी जाती इससे सिद्ध होता है कि वर्णव्यवस्था गुणोंके आधीन है जातिके आधीन नहीं है ||१९८|| 'इसके अतिरिक्त जो यह कहा जाता है कि ब्राह्मणकी उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से हुई है, क्षत्रियकी उत्पत्ति भुजासे हुई है, वैश्यकी उत्पत्ति जंघासे हुई है और शूद्रकी उत्पत्ति पैर से हुई है सो ऐसा हेतुहीन कथन करनेवाला अपने घरमें ही शोभा देता है सर्वत्र नहीं || १९९|| तथा ऋषिशृंग आदि मानवोंमें जो ब्राह्मणता कही जाती है वह गुणोंके संयोगसे कही जाती है ब्राह्मण योनिमें उत्पन्न होनेसे नहीं कही जाती || २००|| वास्तवमें समस्त गुणों के वृद्धिगत होनेके कारण भगवान् ऋषभदेव ब्रह्मा कहलाते हैं और जो सत्पुरुष उनके भक्त हैं वे ब्राह्मण कहे जाते हैं ||२०१॥ क्षत अर्थात् विनाशसे त्राण अर्थात् रक्षा करनेके कारण क्षत्रिय कहलाते हैं, शिल्प अर्थात्
१. चान्यथाख्यानं ख. । अर्थस्येवान्यथाख्यानं ब । २. तन्मयं क., ब. ३. तत्र म. । ४. ज्ञानं देह-म. 'ज' ज्ञानदेहस्य शेषस्य न च - ख. । ५. न श्लोकस्याग्निसंभवात् क. । ६. जातिस्थशफादि म.
७. वृषभजिनेन्द्रः ।
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