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पंचपुराणे
क्रिययैव च देवोऽस्य गुणान् ज्ञास्यति वाचिरात् । वाचा हि प्रकटीकारस्तेषां हास्यस्य कारणम् ॥१४॥ तदस्य युक्तये बुद्धिं करोतु परमेश्वरः । संबन्धं भवतो लब्ध्वा कृतार्थोऽयं भविष्यति ॥१५॥ इत्युक्ते निश्चितो बुद्धया जामातासौ निरूपितः । समस्तं च यथायोग्यं 'कृत्यं तस्य प्रकल्पितम् ॥१६॥ चिन्तितप्राप्तनिःशेषकारणश्च तयोरभूत् । विवाहविधिरत्यन्तप्रीतलोकसमाकुलः ॥१७॥ पुष्पलक्ष्मीमिव प्राप्य दुराख्यानां समागतः । आमोदं जगतो हृद्यं मधुस्तां नेत्रहारिणीम् ॥१८॥ इन्द्रभूतिमिहोद्देशे प्रत्युत्पन्नकुतूहलः । अपृच्छन्मगधाधीशः कृत्वामिनवमादरम् ॥१९॥ असुराणामधीशेन मधवे केन हेतुना । शूलरत्नं मुनिश्रेष्ठ ! दत्तं दुर्लभसंगमम् ॥२०॥ इत्युक्तः पुरुणा युक्तस्तेजसा धर्मवत्सलः । शूलरत्नस्य संप्राप्तेः कारणं गौतमोऽवदत् ॥२१॥ धातकीलक्ष्मणि द्वीपे क्षेत्रे चैरावतश्रुतौ । शतद्वारपुरेऽभूतां मित्रे सुप्रेमबन्धने ॥२२॥ एकः सुमित्रनामासीदपरः प्रमवश्रुतिः । उपाध्यायकुले चैतौ जातावतिविचक्षणौ ॥२३॥ सुमित्रस्याभवद् राज्यं सर्वसामन्तसेवितम् । पुण्योपार्जितसत्कर्मप्रभावात् परमोदयम् ॥२४॥ दरिद्रकुलसंभूतः कर्ममिर्दुष्कृतः पुरा । सुमित्रेण महास्नेहाप्रभवोऽपि कृतः प्रभुः ॥२५॥ सुमित्रोऽथान्यदारण्ये हृतो दुष्टेन वाजिना । दृष्टो द्विरददंष्ट्रेण म्लेच्छेन स्वैरचारिणा ॥२६॥ आनीयासौ ततः पल्लीं संप्राप्य समयं दृढम् । पत्या म्लेच्छवरूथिन्यास्तनयां परिणायितः ॥२७॥
नष्ट कर हाथमें वापस लौट आता है ।।१३।। अथवा आप कार्यके द्वारा ही शीघ्र इसके गुण जानने लगेंगे। वचनोंके द्वारा उनका प्रकट करना हास्यका कारण है ॥१४॥ इसलिए आप इसके साथ पुत्रीका सम्बन्ध करनेका विचार कीजिए। आपका सम्बन्ध पाकर यह कृतकृत्य हो जायेगा ॥१५॥ मन्त्रीके ऐसा कहनेपर रावणने उसे बुद्धिपूर्वक अपना जामाता निश्चित कर लिया और जामाताके यथायोग्य सब कार्य कर दिये ॥१६॥ इच्छा करते ही जिसके समस्त कारण अनायास मिल गये थे ऐसा उन दोनोंका विवाह अत्यन्त प्रसन्न लोगोंसे व्याप्त था अर्थात् उनके विवाहोत्सव में प्रीतिसे भरे अनेक लोक आये थे ॥१७|मधु नाम उस राजकुमारका था और वसन्तऋतुका भी। इसी प्रकार आमोदका अर्थ सुगन्धि है और हर्ष भी । सो जिस प्रकार वसन्तऋतु नेत्रोंको हरण करने वाली अकथनीय पुष्पसम्पदाको पाकर जगत्प्रिय सुगन्धिको प्राप्त होती है उसी प्रकार राजकुमार मधु भी नेत्रोंको हरण करनेवाली कृतचित्राको पाकर परम हर्षको प्राप्त हुआ था ॥१८॥
इसी अवसरपर जिसे कुतूहल उत्पन्न हुआ था ऐसे राजा श्रेणिकने फिरसे नमस्कार कर गौतम स्वामीसे पूछा ।।१९।। कि हे मुनिश्रेष्ठ ! असुरेन्द्रने मधुके लिए दुर्लभ शूलरत्न किस कारण दिया था ? ॥२०॥ श्रेणिकके ऐसा कहनेपर विशाल तेजसे युक्त तथा धर्मसे स्नेह रखनेवाले गौतम स्वामी शूलरत्नकी प्राप्तिका कारण कहने लगे ॥२१॥ उन्होंने कहा कि धातकीखण्ड द्वीपके ऐरावतक्षेत्र सम्बन्धी शतद्वार नामक नगरमें प्रीतिरूपी बन्धनसे बँधे दो मित्र रहते थे॥२२॥ उनमें से एकका नाम सुमित्र था और दूसरेका नाम प्रभव । सो ये दोनों एक गुरुको चटशालामें पढ़कर बड़े विद्वान् हुए ॥२३॥ कई एक दिनमें पुण्योपार्जित सत्कर्मके प्रभावसे सुमित्रको सर्व सामन्तोंसे सेवित तथा परम अभ्युदयसे युक्त राज्य प्राप्त हुआ॥२४॥ यद्यपि प्रभव पूर्वोपार्जित पापकर्मके उदयसे दरिद्र कुलमें उत्पन्न हुआ था तथापि महास्नेहके कारण सुमित्रने उसे भी राजा बना दिया ॥२५॥
___ अथानन्तर एक दिन एक दुष्ट घोड़ा राजा सुमित्रको हरकर जंगलमें ले गया सो वहाँ अपनी इच्छासे भ्रमण करनेवाले द्विरददंष्ट्र नाम म्लेच्छोंके राजाने उसे देखा ॥२६॥ द्विरद१. कृतान्तस्य म.। २. दुराख्यानां ब.। दूरान्मानं समागतः क., ख.। ३. दुष्कुलै-म.। ४. पल्लि क., ब., म. । ५. -विरूथिन्या म. ।
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