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द्वादशं पर्व
२७३ सुमित्रराजचरितं स्मर्यमाणं सुपेशलम् । असुरेन्द्रस्य हृदयं चकर्त्त करपत्रवत् ॥५८॥ दध्यौ चेति पुनर्मदः समित्रोऽसौ महागुणः । आसीन्मम महामित्रः सहायः सर्ववस्तुषु ॥५९॥ तेन साधं मया विद्या गृहीता गुरुवेश्मनि । दरिद्रकुलसंभूतस्तेनाहं स्वसमः कृतः ॥६०॥ आत्मीया तेन में पत्नी द्वेषवर्जितचेतसा । प्रेषिता पापचित्तस्य वितृष्णेन दयावता ॥६॥ ज्ञात्वा वयस्यपत्नीति परमुद्वेगमागतः । शिरः स्वमसिना छिन्दस्तेनाहं परिरक्षितः ॥६२॥ अश्रद्धज्जिनेन्द्राणां शासनं पञ्चतां गतः । प्राप्तोऽस्मि दुर्गती दुःखं स्मरणेनापि दुःसहम् ॥६३॥ निन्दनं साधुवर्गस्य सिद्धिमार्गानुवर्तिनः । यत्कृतं तस्य तत्प्राप्तं फलं दुःखासु योनिषु ॥६॥ स चापि चरितं कृत्वा निर्मलं सुखमुत्तमम् । ऐशाननिलये भुक्त्वा च्युतोऽयं वर्तते मधुः ॥६५॥ उपकारसमाकृष्टस्ततोऽसौ मवनाशिजात् । निर्जगाम क्षणोद्भुतपरप्रेमामानसः ॥६६॥ दृष्ट्वादरेण कृत्वा च महारत्नादिपूजनम् । शूलरत्नं ददावस्मै सहस्रान्तकसंज्ञितम् ॥६७॥ शलरत्नं स तत्प्राप्य परां प्रीतिं गतः क्षितौ । अस्त्रविद्याधिराजश्च सिंहवाहनजोऽभवत् ॥६८॥ एतन्मधोरुपाख्यानमधीते यः शृणोति वा । दीप्तिमथं परं चायुः सोऽधिगच्छति मानवः ॥६९॥ सामन्तानुगतोऽथासौ मरुत्वमखनाशकृत् । प्रभाव प्रथयल्लोके प्रवणीकृतविद्विषम् ॥७॥
संवत्सरान् दशाष्टौ च विहरञ्जनिताद्भुतम् । भुवने जनितप्रेम्णि देवेन्द्रस्त्रिदिवे यथा ॥७१॥ नामक मित्रके निर्मल गुणोंका हृदयमें चिन्तवन करने लगा ॥५७।। ज्यों ही उसे सुमित्र राजाके मनोहर चरित्रका स्मरण आया त्योंही वह करोंतके समान उसके हृदयको विदीर्ण करने लगा ॥५८॥ वह विचार करने लगा कि सुमित्र बड़ा ही भला और महागुणवान् था। वह समस्त कार्यों में सहायता करनेवाला मेरा परम मित्र था ।।५९|| उसने मेरे साथ गुरुके घर विद्या पढ़ी थी। मैं दरिद्रकुल में उत्पन्न हुआ था सो उसने मुझे अपने समान धनवान् बना लिया था ॥६०॥ मेरे चित्तमें पाप समाया सो द्वेषरहित चित्तके धारक उस दयालुने तृष्णारहित होकर मेरे पास अपनी स्त्री भेजी ॥६१॥ 'यह मित्रकी स्त्री है' ऐसा जानकर जब मैं परम उद्वेगको प्राप्त होता हुआ तलवारसे अपना शिर काटनेके लिए उद्यत हुआ तो उसीने मेरी रक्षा की थी ॥६२।। मैंने जिनशासनको श्रद्धा बिना मरकर दुर्गतिमें ऐसे दुःख भोगे कि जिनका स्मरण करना भी दुःसह है ॥६३।। मैंने मोक्षमार्गका अनुवर्तन करनेवाले साधुओंके समूहकी जो निन्दा की थी उसका फल अनेक दुःखदायी योनियों में प्राप्त किया ॥६४॥ और वह सुमित्र निर्मल चारित्रका पालन कर ऐशान स्वर्ग में उत्तम सुखका उपभोग करनेवाला इन्द्र हुआ तथा अब वहाँसे च्युत होकर मधु हुआ है ॥६५॥ इस प्रकार क्षणभरमें उत्पन्न हुए परम प्रेमसे जिसका अन आर्द्र हो रहा था ऐसा चमरेन्द्र सुमित्र मित्रके उपकारोंसे आकृष्ट हो अपने भवनसे बाहर निकला ॥६६॥ उसने बड़े आदरके साथ मिलकर महारत्नोंसे मित्रका पूजन किया और उसके लिए सहस्रान्तक नामक शूलरत्न भेटमें दिया ॥६७॥ हरिवाहनका पुत्र मधु चमरेन्द्रसे शूलरत्न पाकर पृथिवीपर परम प्रीतिको प्राप्त हुआ और अस्त्रविद्याका स्वामी कहलाने लगा ॥६८॥ गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन् ! जो मनुष्य मधुके इस चरित्रको पढ़ता अथवा सुनता है वह विशाल दीप्ति, श्रेष्ठ धन और उत्कृष्ट आयुको प्राप्त होता है ॥६९॥ __अथानन्तर अनेक सामन्त जिसके पीछे-पीछे चल रहे थे ऐसा रावण लोकमें शत्रुओंको वशीभूत करनेवाला अपना प्रभाव फैलाता और अनेक आश्चर्य उत्पन्न करता हुआ प्रेमसे भरे १. चिच्छेद । २. मदर्थम् । ३. श्रुत्वा म.। ४. भुवनान्नि-म. । ५. महारत्नातिपूजनम् म.। ६. सहस्रांशक ख. । सहस्रान्तिक म. । ७. रावणः । ८. प्रलयं म. ।
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