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एकादशं पर्व
२५१
बुद्धेः सर्वज्ञ इत्येष व्यवहारो गुणागतः । मुख्यापेक्षो यथा चैत्रे सिंहशब्दप्रवर्तनम् ॥१७५॥ एतेन चानुमानेन प्रतिज्ञेयं विरोधिनी । अमावश्च ममात्यन्तं प्रसिद्धिं न क्वचिद् गतः ॥१७६॥ सर्वज्ञः सर्वदुक्क्वासो यस्यैष महिमा भुवि । दिवि ब्रह्मपुरे ह्येष 'व्योम्नात्मा सुप्रतिष्ठितः ॥१७७॥ आगमेन तवानेन विसेधं याति संगरः । अनेकान्ते च साध्येऽर्थे भवेसिद्धप्रसाधकम् ॥१७८॥ वक्तृत्वं सर्वथाऽयुक्तं न परं प्रतिषिध्यति । असिद्धं च भवेत् स्वस्य स्याद्वादेन समागतम् ॥१७९॥ 'नासावभिमतोऽस्माकं वक्तृत्वाद्देवदत्तवत् । इत्याद्यपि भवेसिद्धं विरुद्धं साधनं यतः ॥१८०॥ प्रजापत्यादिमिश्चायमुपदेशो न निश्चयः। तेऽप्येवमिति चैतेभ्यो दोषवानागमो भवेत् ॥१८१॥ एक यो वेद तेन स्याज्ज्ञातं सत्तात्मनाखिलम् । अतः साध्यविहीनोऽयं दृष्टान्तो गदितस्त्वया ॥१८२॥ अथ चैकान्तयुक्तोक्तिदृष्टान्तो वो यतस्ततः । साध्यसाधनवैकल्यमुदाहार्य 'सधर्मणि ॥१८३॥ श्रुत्वा वस्तुन्यदृष्टे च प्रमाणं वेदमागतम् । न समाश्रयणं युक्तं हेतोः सर्वज्ञदूषणे ॥१८४॥
जायेगा ॥१७४॥ बुद्धि में जो सर्वज्ञका व्यवहार होता है वह गौण है और गौण व्यवहार सदा मुख्यकी अपेक्षा करके प्रवृत्त होता है। जिस प्रकार चैत्रके लिए सिंह कहना मुख्य सिंहकी अपेक्षा रखता है उसी प्रकार बुद्धिसर्वज्ञ वास्तविक सर्वज्ञकी अपेक्षा रखता है ॥१७५॥ इस प्रकार इस अनुमानसे तुम्हारी 'सर्वज्ञ नहीं है' इस प्रतिज्ञामें विरोध आता है तथा हमारे मतमें सर्वथा अभाव माना नहीं गया है॥१७६॥ 'पृथिवीमें जिसकी महिमा व्याप्त है ऐसा यह सर्वदर्शी सर्वज्ञ कहाँ रहता है' इस प्रश्नके उत्तरमें कहा गया है कि दिव्य ब्रह्मपुरमें आकाशके समान निर्मल आत्मा सुप्रतिष्ठित है ॥१७७॥ तुम्हारे इस आगमसे भी प्रतिज्ञावाक्य विरोधको प्राप्त होता है। यदि सर्वथा सर्वज्ञका अभाव होता तो तुम्हारे आगममें उसके स्थान आदिको चर्चा क्यों की जाती ? और इस प्रकार साध्य अर्थके अनेकान्त हो जानेपर अर्थात् कथंचित् सिद्ध हो जानेपर वह हमारे लिए सिद्धसाधन है क्योंकि यही तो हम कहते हैं ॥१७८॥ सर्वज्ञके अभावमें तुमने जो वक्तृत्व हेतु दिया है सो वक्तृत्व तीन प्रकारका होता है-सर्वथाअयुक्तवक्तृत्व, युक्त वक्तृत्व और सामान्य वक्तत्व। उनमें से सर्वथाअयक्तवक्तत्व तो बनता नहीं, क्योंकि प्रतिवादीके प्रति वह सिद्ध नहीं है। यदि स्याद्वादसम्मत वक्तृत्व लेते हो तो तुम्हारा हेतु असिद्ध हो जाता है, क्योंकि इससे निर्दोष वक्ताको सिद्धि हो जाती है। दूसरे आपके जैमिनि आदिक वेदार्थ वक्ता हम लोगोंको भी इष्ट नहीं हैं। वक्तृत्व हेतुसे देवदत्तके समान वे भी सदोष वक्ता सिद्ध होते हैं, इसलिए आपका यह वक्तृत्व हेतु विरुद्ध अर्थको सिद्ध करनेवाला होनेसे विरुद्ध हो जाता है ॥१७९-१८०॥ तथा प्रजापति आदिके द्वारा दिया गया यह उपदेश प्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि वे भी देवदत्तादिके समान रागी-द्वेषी ही हैं और ऐसे रागी-द्वेषी पुरुषोंसे जो आगम कहा जावेगा वह भी सदोष ही होगा अतः निर्दोष आगमका तुम्हारे यहाँ अभाव सिद्ध होता है ॥१८१।। एकको जिसने जान लिया उसने सद्रूपसे अखिल पदार्थ जान लिये, अतः सर्वज्ञके अभावकी सिद्धि में जो तुमने दूसरे पुरुषका दृष्टान्त दिया है उसे तुमने ही साध्यविकल कह दिया है, क्योंकि वह चूंकि एकको जानता है इसलिए वह सबको जानता है इसकी सिद्धि हो जाती है ॥१८२॥ दूसरे तुम्हारे मतसे सर्वथा युक्त वचन बोलनेवाला पुरुष दृष्टान्त रूपसे है नहीं, अतः आपको दृष्टान्तमें साध्यके अभावमें साधनका अभाव दिखलाना चाहिए। अर्थात् जिस प्रकार आप अन्वय दृष्टान्तमें अन्वयव्याप्ति करके घटित बतलाते हैं उसी प्रकार व्यतिरेक दृष्टान्तमें व्यतिरेकव्याप्ति भी घटित करके बतलानी चाहिए । तभी साध्यकी सिद्धि हो सकती है, अन्यथा नहीं ॥१८३।। तथा आपके यहाँ सुनकर अदृष्ट वस्तुके १. दिव्यब्रह्मपुरे म.। २. व्योमात्मा म.। ३. आगमेनानुमानेन ख.। ४. न शोचति ततोऽस्माकं ख.। ५. तथैवमिति ज.। ६. समिणि म., क., ख. ।
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