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एकादशं पर्व
२५७ प्राप्तेन वापि किं तेन च्युतिर्यस्मात् पुनर्भवेत् । दुःखेन च समासक्तं सुखं स्वल्पं च बाह्य जम् ॥२३६॥ यदि प्राणिवधाद् ब्रह्मलोकं गच्छन्ति मानवाः । तस्यानुमननात् कस्मात् पतितो नरके वसुः ॥२३७॥ उत्तिष्ठ भो वसो स्वर्ग व्रजेति कृतनिस्वनैः । सूत्रकण्ठैर्दुराचारैः स्वपराशुभकारिभिः ॥२३८॥ स्वपक्षानुमतिप्रीतेरुख़ुष्याद्यापि यद्विजैः । आहुतिः क्षिप्यते वह्नौ नितान्तं क्रूरमानसैः ॥२३९।। पिष्टेनापि पशु कृत्वा निघ्नन्तो नरकं गताः । संकल्पादशुभात् कैव कथेतरपशोर्वधे ॥२४०॥ यज्ञकल्पनया नैव किंचिदस्ति प्रयोजनम् । अथापि स्यात्तथाप्येवं न कर्तव्या बुधोत्तमैः ॥२४१॥ यजमानो भवेदात्मा शरीरंतु वितदिका । पुरोडाशस्तु संतोषः परित्यागस्तथा हविः ॥२४२।। मूर्धजा एव दर्माणि दक्षिणा प्राणिरक्षणम् । प्राणायामः सितं ध्यानं यस्य सिद्धपदं फलम् ॥२४३। सत्यं यूपस्तपो वह्निर्मानसं चपलं पशुः । समिधश्च हृषीकाणि धर्मयज्ञोऽयमुच्यते ॥२४४।। यज्ञेन क्रियते तृप्तिर्देवानामिति चेन्मतिः । तन्न तेषां यतोऽस्त्येव दिव्यमन्नं यथेप्सितम् ॥२४५।। स्पर्शतो रसतो रूपादगन्धाद्येषां मनोहरम् । अन्नमस्ति किमेतेन तेषां मांसादिवस्तुना ॥२४६॥ शुक्रशोणितसंभूतममेध्यं कृमिसंभवम् । दुर्गन्धदर्शनं मांसं भक्षयन्ति कथं सुराः ॥२४७॥
त्रयोऽग्नयो वपुष्येव ज्ञानदर्शनजाठराः । दक्षिणाग्न्यादिविज्ञानं कार्य तेष्वेव सूरिभिः ॥२४८॥ यह संसार शून्य हो जाता ॥२३५।। और फिर उस स्वर्गके प्राप्त होनेसे भी क्या लाभ है ? जिससे फिर च्युत होना पड़ता है। यथार्थमें बाह्य पदार्थों से जो सुख उत्पन्न होता है वह दुःखसे मिला हुआ तथा परिमाणमें थोड़ा होता है ।।२३६॥ यदि प्राणियोंका वध करनेसे मनुष्य स्वर्ग जाते हैं तो फिर प्राणिवधकी अनुमति मात्रसे वसु नरकमें क्यों पड़ा ? ||२३७॥ वसु नरक गया है इसमें प्रमाण यह है कि दुराचारी, निज और परका अकल्याण करनेवाले दुष्टचेता ब्राह्मण, अपने पक्षके समर्थनसे प्रसन्न हो आज भी 'हे वसो ! उठो, स्वर्ग जाओ' इस प्रकार जोर-जोरसे चिल्लाते हुए अग्निमें आहुति डालते हैं। यदि वसु नरक नहीं गया होता तो उक्त मन्त्र द्वारा आहुति देनेकी क्या आवश्यकता थी? ॥२३८-२३९|| चूर्णके द्वारा पशु बनाकर उसका घात करनेवाले लोग भी नरक गये हैं फिर अशुभ संकल्पसे साक्षात् अन्य पशुके वध करनेवाले लोगोंकी तो कथा ही क्या है ? ॥२४०।।
प्रथम तो यज्ञको कल्पनासे कोई प्रयोजन नहीं है अर्थात् यज्ञकी कल्पना करना ही व्यर्थ है दूसरे यदि कल्पना करना ही है तो विद्वानोंको इस प्रकारके हिंसायज्ञ की कल्पना नहीं करनी चाहिए ।।२४१॥ उन्हें धर्मयज्ञ ही करना चाहिए। आत्मा यजमान है, शरीर वेदी है, सन्तोष साकल्य है, त्याग होम है, मस्तकके बाल कुशा हैं, प्राणियोंकी रक्षा दक्षिणा है, शुक्लध्यान प्राणायाम है, सिद्धपदकी प्राप्ति होना फल है, सत्य बोलना स्तम्भ है, तप अग्नि है, चंचल मन पश है और इन्द्रियाँ समिधाएँ हैं। इन सबसे यज्ञ करना चाहिए यही धर्मयज्ञ कहलाता है ।।२४२-२४४॥
___ यज्ञसे देवोंकी तृप्ति होती है यदि ऐसा तुम्हारा ख्याल है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि देवोंको तो मनचाहा दिव्य अन्न उपलब्ध है ॥२४५।। जिन्हें स्पर्श, रस, गन्ध और रूपकी अपेक्षा मनोहर-आहार प्राप्त होता है उन्हें इस मांसादि घणित वस्तसे क्या प्रयोजन है ? ॥२ रज और वीर्यसे उत्पन्न है, अपवित्र है, कीड़ोंका उत्पत्तिस्थान है तथा जिसकी गन्ध और रूप दोनों ही अत्यन्त कुत्सित हैं ऐसे मांसको देव लोग किस प्रकार खाते हैं अर्थात् किसी प्रकार नहीं खाते ।।२४७।। ज्ञानाग्नि, दर्शनाग्नि और जठराग्नि इस तरह तीन अग्नियाँ शरीरमें सदा विद्यमान रहती हैं; विद्वानोंको उन्हींमें दक्षिणाग्नि, गार्हपत्याग्नि और आहवनीयाग्नि इन तीन १. -मतप्रीतै म. । २. शरीरस्तु वितर्दिकः म. । ३. यूपस्ततो ब. । ४. तत्र म.। ५. यथेक्षितम् म. ।
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