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पद्मपुराणे सुबुद्धिनरयत्नोत्थाः सर्वथा न रथादयः । व्यवस्थितं यतस्तत्र द्रव्यं चैवोपजन्यते ॥२२४॥ क्लेशादियुक्तता चास्य व्यश्नुते तक्षकादिवत् । नामकर्म च मैवं स्यादीश्वरो यस्त्वयेष्यते ॥२२५॥ विशिष्टाकारसंबद्धमीश्वरस्य पुनर्वपुः । ईश्वरान्तरयस्नोत्थमिष्यतेऽतो न निश्चयः ॥२२६॥ अपरेश्वरयत्नोत्थमथैतदपि कल्प्यते । सत्येवमनवस्था स्यान्न च स्वस्याभिसर्जनम् ॥२२७॥ शरीरमथ नैवास्य विद्यते नैष सर्जकः । अमूर्तस्वाद् यथाकाशं तक्षवद् वा सविग्रहः ॥२२८॥ यजनार्थ च सृष्टानां पशूनां वाहनादिकम् । क्रियमाणं विरुद्ध येत तद्धि स्तेयं प्रकल्प्यते ॥२२९॥ सतः कर्मभिरेवेदं रागादिभिरुपार्जितैः । वैचित्र्यं व्यश्नुते विश्वमनादौ भवसागरे ॥२३०॥ कर्म किं पूर्वमाहोस्विच्छरीरमिति नेदृशः । युक्तः प्रश्नो भवेऽनादौ बीजपादपयोर्यथा ॥२३१॥ अन्तोऽपि तर्हि न स्याच्चत्तम बीजविनाशतः । दृष्ट्वा हि पादपोद्भुतेरसंभूतिरिदं तथा ॥२३२॥ तस्माद् द्विष्टेन केनापि प्राणिना पापकर्मणा । कुग्रन्थरचनां कृत्वा यज्ञकर्म प्रवर्तितम् ॥२३३॥ संप्राप्तोऽसि कुले जन्म बुद्धिमानसि मानवः । निवर्तस्व ततः पापादेतस्माद् व्याधकर्मणः ॥२३॥
यदि प्राणिवधः स्वर्गसंप्राप्तौ कारणं भवेत् । ततः शून्यो भवेदेष लोकोऽल्पैरेव वासरैः ॥२३५॥ नहीं है ॥२२२-२२३॥ विचार करनेपर जान पड़ता है कि रथ आदि जितने पदार्थ हैं वे सब एकान्तसे बुद्धिमान् मनुष्यके प्रयत्नसे ही उत्पन्न होते हैं ऐसी बात नहीं है। क्योंकि रथ आदि वस्तुओंमें जो लकड़ी आदि पदार्थ अवस्थित है वही रथादिरूप उत्पन्न होता है ।।२२४॥ जिस प्रकार रथ आदिके बनानेमें बढ़ई आदिको क्लेश उठाना पड़ता है उसी प्रकार ईश्वरको भी सृष्टिके बनानेमें क्लेश उठाना पड़ता होगा। इस तरह उसके सुखी होनेमें बाधा प्रतीत होती है। यथार्थमें तुम जिसे ईश्वर कहते हो वह नाम कम है ।।२२५॥ एक प्रश्न यह भी उठता है कि ईश्वर सशरीर है या अशरीर ? यदि अशरीर है तो उससे मूर्तिक पदार्थोंका निर्माण सम्भव नहीं है। यदि सशरीर है तो उसका वह विशिष्टाकारवाला शरीर किसके द्वारा रचा गया है ? यदि स्वयं रचा गया है तो फिर दूसरे पदार्थ स्वयं क्यों नहीं रचे जाते ? यदि यह माना जाय कि वह दूसरे ईश्वरके यत्नसे रचा गया है तो फिर यह प्रश्न उपस्थित होगा कि उस दूसरे ईश्वरका शरीर किसने रचा? इस तरह अनवस्था दोष उत्पन्न होगा। इस विसंवादसे बचने के लिए यदि यह माना जाये कि ईश्वरके शरीर है ही नहीं तो फिर अमूर्तिक होनेसे वह सृष्टिका रचयिता कैसे होगा ? जिस प्रकार अमूर्तिक होनेसे आकाश सृष्टिका कर्ता नहीं है उसी प्रकार अमूर्तिक होनेसे ईश्वर भी सृष्टिका कर्ता नहीं हो सकता। यदि बढ़ईके समान ईश्वरको कर्ता माना जाये तो वह सशरीर होगा न कि अशरीर ॥२२६-२२८। और तुमने जो कहा कि ब्रह्माने पशुओंकी सृष्टि यज्ञके लिए ही की है सो यदि यह सत्य है तो फिर पशुओंसे बोझा ढोना आदि काम क्यों लिया जाता? इसमें विरोध आता है विरोध ही नहीं यह तो चोरी कहलावेगी ॥२२९॥ इससे यह सिद्ध होता है कि रागादि भावोंसे उपार्जित कर्मोंके कारण ही समस्त लोग अनादि संसारसागरमें विचित्र दशाका अनुभव करते हैं ॥२३०॥ कर्म पहले होता है कि शरीर पहले होता है ? ऐसा प्रश्न करना ठीक नहीं है क्योंकि इन दोनोंका सम्बन्ध बीज और वृक्षके समान अनादि कालसे चला आ रहा है ॥२३१॥ कर्म और शरीरका सम्बन्ध अनादि है इसलिए इसका कभी अन्त नहीं होगा ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि जिस प्रकार बीजके नष्ट हो जानेसे वृक्षकी उत्पत्तिका अभाव देखा जाता है उसी प्रकार कर्मके नष्ट होनेसे शरीरका अभाव भी देखा जाता है ।।२३२।। इसलिए पाप कार्य करनेवाले किसी द्वेषी पुरुषने खोटे शास्त्रकी रचना कर इस यज्ञ कार्यको प्रचलित किया है ।।२३३।। तुम उच्च कुलमें उत्पन्न हुए हो और बुद्धिमान् मनुष्य हो इसलिए शिकारियोंके कार्यके समान इस पाप कार्यसे विरत होओ ॥२३४॥ यदि प्राणियोंका वध स्वर्गप्राप्तिका कारण होता तो थोड़े ही दिनोंमें
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