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एकादशं पर्व
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गर्जितेन पयोदानां रावणस्येव शासनात् । घोषणेन कृता सर्वेः प्रणतिः पतिभिर्नृणाम् ॥३७३॥ कन्या दृष्टिहराः प्रापुर्दशवक्त्रं स्वयंवराः । भूगोचराः परित्यक्तगगना इव विद्युतः ॥३७४॥ रेमिरे तास्तमासाद्य महीधरणतत्परम् । पयोधरभराक्रान्ता सद्वर्षा इव भूभृतम् ॥३७५॥ जिगीषोर्यक्षमर्दस्य दृष्ट्वैव परमां द्युतिम् । भास्वान् पलायितः क्वापि त्रपात्राससमाकुलः ॥३७६॥ दशाननस्य यद्वक्त्रं तदेव कुरुते क्रियाम् । मदीयामिति मत्वेव जगाम क्वापि चन्द्रमाः ॥३७७॥ दशवक्त्रस्य वक्त्रेण जितं ज्ञात्वा निजं पतिम् । मयेनेव समाक्रान्तास्ताराः क्वापि पलायिताः ॥३७८॥ सुरक्तं पाणिचरणं कैकसेयस्य योषिताम् । विदित्वेव पायुक्ता तिरोऽभूदब्जसंहतिः ॥३७९॥ शनाविद्युता युक्ता रक्तांशुकसुरायुधाः । नार्यः पयोधराक्रान्तास्तस्य वर्षा इवाभवन् ॥३८०॥ आमोद रावणो जज्ञे केतकीनां न योषिताम् । निःश्वासमरुताकृष्टगुञ्जभ्रमरपङ्क्तिना ॥३८१॥
मन्दाक्रान्तावृत्तम् भागीरथ्यास्तटमतितरां रम्यमासाद्य दूर
प्रान्तोद्भुतप्रचुरविलसत्कान्तिशप्पं विशालम् । नानापुष्पप्रभवनिविडघ्राणसंरोधिगन्धं
'क्षोणीबन्धुर्जलदसमयं सर्वसौख्येन निन्ये ॥३८२।।
था इससे ऐसा जान पड़ता था मानो स्त्रियोंको उत्सुक करता हुआ साक्षात् वर्षाकाल ही हो ॥३७२।। मेघोंको गर्जनाके बहाने मानो रावणका आदेश पाकर ही समस्त राजाओंने रावणको नमस्कार किया था ॥३७३।। नेत्रोंको हरण करनेवाली भूमिगोचरियोंकी अनेक कन्याएँ रावणको प्राप्त हुई सो ऐसी जान पड़ती थीं मानो आकाशको छोड़कर बिजलियाँ ही उसके पास आयी हों ॥३७४।। जिस प्रकार पयोधरभराकान्ता अर्थात् मेघोंके समूहसे युक्त उत्तम वर्षाएँ किसी पर्वतको पाकर क्रीड़ा करती हैं उसी प्रकार पयोधरभराक्रान्ता अर्थात् स्तनोंके भारसे आक्रान्त कन्याएँ पृथिवीका भार धारण करनेमें समर्थ रावणको पाकर क्रीड़ा करती थीं ॥३७५।। वर्षा ऋतुमें सूर्य छिप गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो विजयाभिलाषी रावणकी उत्कृष्ट कान्ति देख लज्जा और भयसे व्याकुल होता हुआ कहीं भाग गया था ॥३७६।। चन्द्रमाने देखा कि जो काम में करता हूँ वही रावण का मुख करता है ऐसा मानकर ही मानो वह कहीं चला गया था ॥३७७॥ तारा भी अन्तहित हो गये थे सो ऐसा जान पड़ता था मानो ताराओंने देखा कि रावणके मुखसे हमारा स्वामी-चन्द्रमा जीत लिया गया है इस भयसे युक्त होकर ही वे कहीं भाग गयी थीं ॥३७८।। रावणकी स्त्रियोंके हाथ और पैर हमसे कहीं अधिक लाल हैं ऐसा जानकर ही मानो कमलोंका समूह लजाता हुआ कहीं छिप गया था ॥३७९॥ जो मेखलारूपी बिजलीसे युक्त थीं तथा रंगबिरंगे वस्त्ररूपी इन्द्रधनुषको धारण कर रही थों और पयोधर अर्थात् स्तनों ( पक्षमें मेघों ) से आक्रान्त थीं ऐसी रावणकी स्त्रियाँ ठीक वर्षा ऋतुके समान जान पड़ती थीं ॥३८०॥ जिसने गूंजती हुई भ्रमरपंक्तिको आकृष्ट किया था ऐसे श्वासोच्छ्वासकी वायुसे रावण केतकीके फूल और स्त्रियोंकी गन्धको अलग-अलग नहीं पहचान सका था ॥३८१॥ जिसके दूर-दूर तक प्रचुर मात्रामें सुन्दर घास उत्पन्न हुई थी और जहाँ नाना फूलोंसे समुत्पन्न गन्ध घ्राणको व्याप्त कर रही थी ऐसे गंगा नदीके लम्बे-चौड़े सुन्दर तटको पाकर रावणने सुखपूर्वक वर्षा काल व्यतीत किया ।।३८२॥ गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे राजन् ! पुण्यात्मा मनुष्योंका नाम १. स्तनभारावनताः पक्षे मेघसमूहाक्रान्ताः । २. रावणस्य । ३. रसना विद्युता युक्ता म. । ४. क्रान्ता तस्य म. । ५. शिष्यं म. । संख्यं ख. । सेव्यं क. । ६. रावणः ।
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