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पद्मपुराणे
सुरा यदि हुतेनाग्नौ तृप्तिं यान्ति बुभुक्षिताः । स्वतो नाम ततो देवास्तृप्तिं किमिति नागताः ।। २४९|| ब्रह्मलोकात्किलागत्य दुर्गन्धं योनिजं वपुः । चखाद ध्वाङ्क्षगोमायुसारमेयसमो भवेत् ॥ २५० ॥ लालाक्लिन्ने मुखे क्षिप्तं कथं वान्नं द्विजातिभिः । विट्पूर्णकुक्षिसंप्राप्तं तर्पयेत् स्वर्गवासिनः || २५१ ॥ एवं ततो गन्तं तमनेकान्तदिवाकरम् । देवर्षितेजसा दीप्तं शास्त्रार्थज्ञानजन्मना ।। २५२ ।। ऋत्विक्पराजयोद्भूतक्रोधसंभारकम्पिताः । वेदार्थाभ्यसनात्यन्तदयानिर्मुक्तमानसाः || २५३॥ आशीविषसमाशेषदृष्टतारकलोचनाः । आवृत्य सर्वतः क्षुब्धाः कृत्वा कलकलं महत् ॥ २५४ ॥ बद्ध्वा परिकरं पापाः सूत्रकण्ठाः समुद्धताः । हस्तपादादिमिर्हन्तुं वायसा इव कौशिकम् ॥ २५५ ॥ नारदोऽपि ततः कश्चिन्मुष्टिमुद्गरताडनैः । पाणिनिर्घातपातैश्च कांश्चिदन्यान् यथागतान् ।। २५६ ।। शस्त्रायमाणैर्निःशेषैर्गात्रैरेव सुदुःसहैः । द्विजान् जवान कुर्वाणो रेचकं भ्रमणं बहून् ॥ २५७॥ अथ घ्नन् स चिराखिन्नः क्रूरैर्बहुभिरावृतः । गृहीतः सर्वगात्रेषु भञ्जन्नाकुलतां पराम् ।। २५८ ।। पक्षीव निबिडं बद्धः पाशकैरतिदुःखितः । वियदुत्पतनाशक्तः संप्राप्तः प्राणसंशयम् || २५९|| एतस्मिन्नन्तरे दूतो दाशवक्त्रः समागतः । हन्यमानमिमं दृष्ट्वा प्रत्यभिज्ञाय नारदम् ॥ २६०॥ निवृत्य त्वरयात्यन्तमेवं रावणमब्रवीत् । यस्यान्तिकं महाराज दूतोऽहं प्रेषितस्त्वया || २६१ ॥
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अग्नियोंकी स्थापना करना चाहिए || २४८ || यदि भूखे देव होम किये गये पदार्थ से तृप्तिको प्राप्त होते हैं तो वे स्वयं ही क्यों नहीं तृप्तिको प्राप्त हो जाते, मनुष्योंके होमको माध्यम क्यों बनाते हैं ? ||२४९|| जो देव ब्रह्मलोकसे आकर योनिसे उत्पन्न होनेवाले दुर्गन्धयुक्त शरीरको खाता है वह कौए, शृगाल और कुत्ते के समान है || २५०||
इसके सिवाय तुम श्राद्धतर्पण आदिके द्वारा मृत व्यक्तियोंकी तृप्ति मानते हो सो जरा विचार तो करो । ब्राह्मण लोग लारसे भीगे हुए अपने मुखमें जो अन्न रखते हैं वह मलसे भरे पेटमें जाकर पहुँचता है । ऐसा अन्न स्वर्गवासी देवताओंको तृप्त कैसे करता होगा ? || २५१ ॥ इस प्रकार शास्त्रोंके अर्थज्ञानसे उत्पन्न, देवर्षिके तेजसे देदीप्यमान, उक्त कथन करते हुए नारदजी अनेकान्तके सूर्य के समान जान पड़ते थे || २५२ || ब्राह्मणोंने उन्हें सब ओरसे घेर लिया । उस समय वे ब्राह्मण याजककी पराजयसे उत्पन्न क्रोधके भारसे कम्पित थे, वेदार्थका अभ्यास करनेके कारण उनके हृदय दयासे रहित थे || २५३ || सर्प के समान उनकी आँखोंकी पुतलियाँ सबको दिख रही थीं और क्षुभित हो सब ओरसे बड़ा भारी कल-कल कर रहे थे || २५४ || वे सब ब्राह्मण कमर कसकर हस्तपादादिकसे नारदको मारनेके लिए ठीक उसी तरह तैयार हो गये जिस प्रकार कि कौए उल्लूको मारने के लिए तैयार हो जाते हैं || २५५|| तदनन्तर नारद भी उनमें से कितने ही लोगोंको मुट्ठियोंरूपी मुद्गरोंकी मारसे और कितने ही लोगोंको एड़ीरूपी वज्रपातसे मारने लगा ||२५६|| उस समय नारद के समस्त अवयव अत्यन्त दुःसह शस्त्रोंके समान जान पड़ते थे । उन सबसे उसने घूम-घूमकर बहुत-से ब्राह्मणोंको मारा || २५७॥ अथानन्तर चिरकाल तक ब्राह्मणोंको मारता हुआ खेदखिन्न हो गया । उसे बहुत-से दुष्ट ब्राह्मणोंने घेर लिया, वे उसे समस्त शरीर में मारने लगे जिससे वह परम आकुलताको प्राप्त हुआ || २५८ || जिस प्रकार जालसे कसकर बँधा पक्षी अत्यन्त दुखी हो जाता है और आकाशमें उड़ने में असमर्थ होता हुआ प्राणोंके संशयको प्राप्त होता है ठीक वही दशा उस समय नारदकी थी || २५९||
इसी बीच में रावणका दूत आ रहा था सो उसने पिटते हुए नारदको देखकर पहचान लिया || २६० | उसने शीघ्र ही लौटकर रावण से इस प्रकार कहा कि हे महाराज ! मुझ दूतको आपने जिसके पास भेजा था वह अकेला ही राजाके देखते हुए बहुत-से दुष्ट ब्राह्मणोंके द्वारा उस १. श्वेतो म । स्वेनो क. । स्वेतो ब । २. रावण सम्बन्धी |
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