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पद्मपुराणे इति 'देवयतेः श्रुत्वा कैकसीकुक्षिसंभवः । पुराणकथया प्रीतो नमश्चक्रे जिनाधिपम् ॥३०२॥ संकथाभिश्च रम्याभिर्महापुरुषजन्मभिः । स्थितः क्षणं विचित्राभिर्नारदेन समं सुखी ॥३०३॥ मरुत्वोऽथाञ्जलिं बद्ध्वा क्षितिसक्तशिरोरुहः । प्रणनाम यमोत्सादं नयविच्चैवमब्रवीत् ॥३०॥ भृत्योऽहं तव लङ्कश ! भज नाथ ! प्रसन्नताम् । अज्ञानेन हि जन्तूनां भवत्येव दुरीहितम् ॥३०५॥ गृह्यतां कन्यका चेयं नाम्ना मे कनकप्रभा । वस्तूनां दर्शनीयानां भवानेव हि भोजनम् ॥३०६॥ प्रणतेषु दयाशीलस्तां प्रतीयेष रावणः । उपयेमे च सातत्यप्रवृत्तपरमोदयः ॥३०७॥ तत्सामन्ताश्च तुष्टेन 'मरुत्वेन यथोचितम् । मटाश्च पूजिता यानवासोऽलंकरणादिमिः ॥३०८॥ कनकप्रभया साधं रममाणस्य चाजनि । सुता संवत्सरस्यान्ते कृतचित्रेति नामतः ॥३०९॥ रूपेण हि कृतं चित्रं तया लोकस्य पश्यतः । मूर्तियुक्तेव सा शोमा चक्रे चित्तस्य चोरणम् ॥३१०॥ जयार्जितसमुत्साहाः शूरास्तेजस्विविग्रहाः । सामन्ता दशवक्त्रस्य रेमिरे धरणीतले ॥३१॥ धत्ते यो नृपतिख्याति तान् दृष्टा स बलीयसः। जगामात्यन्तदीनत्वं स्वभोगभ्रंशकातरः ॥३१२॥ मध्यभागं समालोक्य वर्षस्याम्बरगोचराः । कनकादिनदीरम्यं विस्मयं प्रापुरुत्तमम् ॥३१३॥ ऊचः केचिद्वरं भद्रा अत्रेवावस्थिता वयम् । नूनं स्वर्गोऽपि नैतस्मादजते रामणीयकम् ॥३१४॥ अन्येऽवदन्निमं देशं दृष्ट्वा लङ्कानिवर्तने । कुटुम्बदर्शनं शुद्धं कारणं नो भविष्यति ॥३१५॥
जैसे लोग कैसे कर सकते हैं ? ॥३०१॥ इस प्रकार नारदके मुखसे पुराणकी कथा सुनकर रावण बहत प्रसन्न हुआ और उसने जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार किया ॥३०२॥ इस प्रकार वह नारदके साथ महापुरुषोंसे सम्बन्ध रखनेवाली अनेक प्रकारको मनोहर और विचित्र कथाएँ करता हुआ क्षणभर सुख से बैठा ॥३०३।। अथानन्तर नीतिके जानकार राजा मरुत्वने हाथ जोड़कर तथा सिरके बाल जमीनपर लगाकर रावणको प्रणाम किया और निम्नांकित वचन कहे ॥३०४।। हे लंकेश ! मैं आपका दास हूँ। आप मुझपर प्रसन्न होइए। अज्ञानवश जीवोंसे खोटे काम बन ही जाते हैं ॥३०५।। मेरी कनकप्रभा नामकी कन्या है सो इसे आप स्वीकृत कीजिए क्योंकि सुन्दर वस्तुओंके पात्र आप ही हैं ।।३०६॥ नम्र मनुष्योंपर दया करना जिसका स्वभाव था और निरन्तर जिसका अभ्युदय बढ़ रहा था ऐसे रावणने कनकप्रभाको विवाहना स्वीकृत कर विधिपूर्वक उसके साथ विवाह कर लिया ॥३०७|| राजा मरुत्वने सन्तुष्ट होकर रावणके सामन्तों और योद्धाओंका वाहन, वस्त्र तथा अलंकार आदिसे यथायोग्य सत्कार किया ॥३०८॥ कनकप्रभाके साथ रमण करते हुए रावणके एक वर्ष बाद कृतचित्रा नामकी पुत्री हुई ॥३०९|| चूँकि उसने देखनेवाले मनुष्योंको अपने रूपसे चित्र अर्थात् आश्चर्य उत्पन्न किया था इसलिए उसका कृतचित्रा नाम सार्थक था। वह मूर्तिमती शोभाके समान सबका चित्त चुराती थी ॥३१०॥ विजयसे जिनका उत्साह बढ़ रहा था तथा जिनका शरीर अत्यन्त तेजःपूर्ण था ऐसे दशाननके शूरवीर सामन्त पृथ्वीतलपर जहां-तहाँ क्रीड़ा करते थे ॥३११।। जो मनुष्य 'राजा' इस ख्यातिको धारण करता था वह दशाननके उन बलवान् सामन्तोंको देखकर अपने भोगोंके नाशसे कातर होता हुआ अत्यन्त दीनताको प्राप्त हो जाता था ॥३१२॥ विद्याधर लोग सुवर्णमय पर्वत तथा नदियोंसे मनोहर भारतवर्षका मध्यभाग देखकर परम आश्चर्यको प्राप्त हुए थे ॥३१३।। कितने ही विद्याधर कहने लगे कि यदि हम लोग यहीं रहने लगें तो अच्छा हो । निश्चय ही स्वर्ग भी इस स्थानसे बढ़कर अधिक सौन्दर्यको प्राप्त नहीं है ॥३१४।। कितने ही लोग कहते थे कि हम लोग इस देशको १. नारदात् । २. एतन्नामा नृपः । मरुतोऽया म. । ३. यमोन्मादं म. । रावणम् । ४. स्वीचकार । ५. सात्यन्त -म. । ६. मरुतेन म.। ७. कान (?) म.। ८. सूरास् म.। ९. भरतक्षेत्रस्य । १०. विद्याधराः । वर्षस्यान्तरगोचराः क.।
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