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एकादशं पर्व
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'तया च यत्पशुर्मायुमकृतोरोदवाहना (?) । पादाभ्यामेनसस्तस्माद्विश्वस्मान्मुञ्च वनलः ॥२१॥ एवमादि च बढेव गदितं दोषनोदनम् । आगमेन ततोऽन्येन व्यभिचारोऽत्र विद्यते ॥२१५॥ पशोमध्ये वधो वेद्याः प्रत्यवायाय कल्प्यते । तस्य दुःखनिमित्तत्वाद् यथा व्याधकृतो वधः ॥२१६॥ स्वयंभुवा च लोकस्य सगों नेयर्ति सत्यताम् । विचार्यमाणमेतद्धि पुराणतृणदुर्बलम् ॥२१७॥ कृतार्थो यद्यसौ सृष्टौ तस्यां किं स्यात्प्रयोजनम् । क्रीडेति चेत्कृतार्थोऽसौ न भवत्यर्भको यथा ॥२१८॥ साक्षादेव रतिं कस्मान्न सृजेत् स विनेतरैः । सृजतो वास्य के भावा बजेयुः करणादिताम् ॥२१९॥ किंचोपकारिणः केचित् केचिद्वास्यापकारिणः । सुखिनः कुरुते कांश्चिद् येन काश्चिञ्च दुःखिनः ॥२२०॥ अथ नैव कृतार्थोऽसावेवं तर्हि स नेश्वरः । कर्मणां परतन्त्रत्वाद् यथा कश्चिद् भवद्विधः ॥२२१॥ सुबुद्धिनरयत्नोत्थसंस्थानाः कमलादयः । विशिष्टाकारयुक्तत्वाद् रथवेश्मादयो यथा ॥२२२॥ यदबुद्धिपूर्वका एते भविष्यन्ति स ईश्वरः । इत्येतच्च न सम्यक्त्वं व्रजत्येकान्तवादिनः ॥२२३॥
है। अन्य दक्षिणाओंका व्यापार तो दोषोंके निवारण करने में होता है॥२१२-२१३॥ तथा पशु-यज्ञमें यदि पशु यज्ञके समय शब्द करे या अपने अगले दोनों पैरोंसे छाती पीटे तो हे अनल ! तुम मुझे इससे होनेवाले समस्त दोषसे मुक्त करो ॥२१४|| इत्यादि रूपसे जो दोषोंके बहुत-से प्रायश्चित्त कहे गये हैं उनके विषयमें अन्य आगमसे प्रकृतमें विरोध दिखाई देता है ।।२१५॥
जिस प्रकार व्याधके द्वारा किया हुआ वध दुःखका कारण होनेसे पापबन्धका निमित्त है उसी प्रकार वेदोके बीचमें पशुका जो वध होता है वह भी उसे दुःखका कारण होनेसे पापबन्धका ही निमित्त है ॥२१६।।
'ब्रह्माके द्वारा लोककी सृष्टि हुई है' यह कहना भी सत्य नहीं है क्योंकि विचार करनेपर ऐसा कथन जीर्णतृणके समान निस्सार जान पड़ता है ॥२१७।। हम पूछते हैं कि जब ब्रह्मा कृतकृत्य है तो उसे सृष्टिकी रचना करनेसे क्या प्रयोजन है ? कहो कि क्रीड़ावश वह सृष्टिकी रचना करता है तो फिर कृतकृत्य कहाँ रहा ? जिस प्रकार क्रीडाका अभिलाषो बालक अकृत-कृत्य है उसी प्रकार क्रीड़ाका अभिलाषी ब्रह्मा भी अकृतकृत्य कहलायेगा ॥२१८॥ फिर ब्रह्मा अन्य पदार्थोंके बिना स्वयं ही रतिको क्यों नहीं प्राप्त हो जाता ? जिससे सृष्टि निर्माणकी कल्पना करनी पड़ी। इसके सिवाय एक प्रश्न यह भी उठता है कि जब ब्रह्मा सृष्टिकी रचना करता है तो इसके सहायक करण, अधिकरण आदि कौन-से पदार्थ हैं ? ॥२१९॥ फिर संसारमें सब लोग एक सदृश नहीं हैं, कोई सुखी देखे जाते हैं और कोई दुःखी देखे जाते हैं। इससे यह मानना पड़ेगा कि कोई लोग तो ब्रह्माके उपकारी हैं और कोई अपकारी हैं। जो उपकारी हैं उन्हें यह सुखी करता है और कोई अपकारी हैं उन्हें यह दुःखी करता है ।।२२०॥
___ इस सब विसंवादसे बचनेके लिए यदि यह माना जाये कि ईश्वर कृतकृत्य नहीं है तो वह कर्मोके परतन्त्र होने के कारण ईश्वर नहीं कहलावेगा जिस प्रकार कि आप कर्मोके परतन्त्र होनेके कारण ईश्वर नहीं हैं ।।२२१।। जिस प्रकार रथ, मकान आदि पदार्थ विशिष्ट आकारसे सहित होनेके कारण किसी बुद्धिमान् मनुष्यके प्रयत्नसे निर्मित माने जाते हैं उसी प्रकार कमल आदि पदार्थ भी विशिष्ट आकारसे युक्त होनेके कारण किसी बुद्धिमान् मनुष्यके प्रयत्नसे रचित होना चाहिए। "जिसकी बुद्धिसे इन सबकी रचना होती है वही ईश्वर है" इस अनुमानसे सृष्टिकर्ता ईश्वरकी सिद्धि होती है सो यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि एकान्तवादीका उक्त अनुमान समीचीनताको प्राप्त
१. तथापि ख.। २. माय म.। ३. मुश्चातनल: म.। ४. नल क.। 'यत्पशुर्मायुमकृतोरो वा पद्भिराहते । अग्निर्मा तस्मादेनसो विश्वान् मुञ्चत्व हसः । ( कात्यायन श्रौतसूत्र २५।९।१३)। ५. च नैव ख. ।
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