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एकrai पर्व
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सत्कर्मा बालकश्चासौ रोदनादिविवर्जितः । व्रजद्भिर्नमसा दृष्टः सुरैजू म्भकसंज्ञकैः ॥ १५१ ॥ गृहीत्वा च कृपायुक्तैरादरात् परिपालितः । अध्यापितश्च शास्त्राणि सरहस्यान्यशेषतः ॥ १५२ ॥ लेभे च लब्धवर्णः सन् विद्यामाकाशगामिनीम् । यौवनं च परं प्राप्तः स्थितिं चाणुवतीं दृढाम् ॥ १५३ ॥ दृष्ट्वा च मातरं चिह्नः प्रत्यभिज्ञानकारिणीम् । तत्प्रीत्योपेत्य निर्ग्रन्थं सम्यग्दर्शनतत्परः ॥ १५४ ॥ प्राप्य क्षुल्लकचारित्रं जटामुकुटमुद्वहन् । 'अवद्वारसमो जातो न गृहस्थो न संयतः ॥ १५५ ॥ यश्च कन्दर्पको कुच्य मौखर्य्यात्यन्तवत्सलः । कलहप्रेक्षणाकाङ्क्षी 'गीतचुचुः प्रभाववान् ॥१५६॥ पूजितो राजलोकस्य परैरव्याहतायतिः । चचार रोदसीं नित्यं कुतूहलगतेक्षणः ॥ १५७ ॥ देवैः संवर्धितत्वाच्च देवसंनिभविभ्रमः । देवर्षिः प्रथितः सोऽभूद् विद्याविद्योतिताद्भुतः ॥ १५८ ॥ कथंचित्संचरंश्चासाविच्छया तां मखावनीम् । समीपगगनोद्देशस्थितोऽपश्यज्जनाकुलाम् ॥१५९॥ दृष्ट्वा च तान् पशून् बद्धान् समाश्लिष्टोऽनुकम्पया | अवतीर्णो मखक्षोणीं जल्पाकपथपण्डितः ॥ १६०॥ उवाचेति मँरुत्वञ्च किं प्रारब्धमिदं नृप । हिंसनं प्राणिवर्गस्य द्वारं दुर्गतिगामिनाम् ॥१६१ ॥ उवाचासावयं वेत्ति सर्वशास्त्रार्थकोविदः । ऋत्विग् मम यदेतेन कर्मणा प्राप्यते फलम् ॥ १६२॥
मत्सर भावसे रहित होकर वह बड़ी शान्तिसे आलोक नगर में इन्द्रमालिनी नामक आर्यिकाकी शरणमें गयी और उनके पास बहुत भारी संवेगसे उत्तम चेष्टाकी धारक आर्यिका हो गयी || १४९ - १५० ॥
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अथानन्तर - आकाशमें जृम्भक नामक देव जाते थे सो उन्होंने रोदनादि क्रियासे रहित उस पुण्यात्मा बालकको देखा || १५१ ।। उन दयालु देवोंने आदरसे ले जाकर उसका पालन किया और उसे रहस्यसहित समस्त शास्त्र पढ़ाये || १५२ || विद्वान् होनेपर उसने आकाशगामिनी विद्या प्राप्त की और परम यौवन प्राप्त कर अत्यन्त दृढ़ अणुव्रत धारण किये || १५३ || उसने चिह्नोंसे पहचाननेवाली माताके दर्शन किये और उसकी प्रीतिसे अपने पिता निर्ग्रन्थ गुरुके भी दर्शन कर सम्यग्दर्शन धारण किया || १५४ || क्षुल्लकका चारित्र प्राप्त कर वह जटारूपी मुकुटको धारण करता हुआ अवद्वारके समान हो गया अर्थात् न गृहस्थ ही रहा और न मुनि ही किन्तु उन दोनोंके मध्यका हो गया || १५५ || वह कन्दर्प कौत्कुच्य और मौखय्र्य्यसे अधिक स्नेह रखता था, कलह देखनेकी सदा उसे इच्छा बनी रहती थी, वह संगीतका प्रेमी और प्रभावशाली था || १५६ || राजाओं के समूह उसका सम्मान करते थे, उसके आगमन में कभी कोई रुकावट नहीं करते थे अर्थात् वह राजाओंके अन्तःपुर आदि सुरक्षित स्थानोंमें भी बिना किसी रुकावटके आ-जा सकता था । और निरन्तर कुतूहलोंपर दृष्टि डालता हुआ आकाश तथा पृथिवीमें भ्रमण करता रहता था || १५७ || देवोंने उसका पालन-पोषण किया था इसलिए उसकी सब चेष्टाएँ देवोंके समान थीं । वह देवर्षि नामसे प्रसिद्ध था और विद्याओंसे प्रकाशमान् तथा आश्चर्यकारी था || १५८ ॥
अपनी इच्छासे संचार करता हुआ वह नारद किसी तरह राजपुर नगरकी यज्ञशाला के समीप पहुँचा और वहाँ पास ही आकाशमें खड़ा होकर मनुष्योंसे भरी हुई यज्ञभूमिको देखने लगा ||१५९ || वहाँ बँधे हुए पशुओंको देखकर वह दयासे युक्त हो यज्ञभूमिमें उतरा । वाद-विवाद करने में वह पण्डित था ही || १६० || उसने राजा मरुत्वान् से कहा कि हे राजन् ! तुमने यह क्या प्रारम्भ कर रखा है ? तुम्हारा यह प्राणिसमूहको हिंसाका कार्यं दुर्गतिमें जानेवालोंके लिए द्वारके समान है ॥१६१॥ इसके उत्तरमें राजाने कहा कि इस कार्यसे मुझे जो फल प्राप्त होगा वह समस्त
१. सरहस्याण्यशेषतः म., ब । २. अणुव्रतानामियम् आणुव्रती ताम् । ३. वृढाम् म । ४. न यतिर्न गृहस्थः किन्तु तयोर्मध्यगतः अवद्वारसमः । ५. कान्दर्प -ख., म. । ६. गीतेन वित्तो गीतचुञ्चुः 'तेन वित्तश्चुञ्चुप्चणपी' इति चञ्चुपप्रत्ययः । गीतचञ्चुः म., क., ख., ब. ७. मरुतञ्च म. ।
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