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पद्मपुराणे
वक्तृत्वस्य विरोधो वा सर्वज्ञत्वेन कः समम् । सति सर्वज्ञतायोगे वक्ता हि सुतरां भवेत् ॥ १८५ ॥ यो न वेत्ति स किं वक्ति वराको मतिदुर्विधः । व्यतिरेकाविनाभावो भावाच्च स्यान्न साधनम् ॥१८६॥ स्वपक्षोऽयमविद्येयं तथा 'रागादिकं मलम् । क्षीयतेऽलं क्वचिद्धेतोर्धातु हेममलं यथा ॥ १८७॥ अस्मदादिमते 'धर्मा अपेक्षितविपर्ययाः । धर्मत्वादुत्पलद्रव्ये यथा नीलविशेषणम् ॥ १८८ ॥ कर्त्रभावश्च वेदस्य युक्त्यभावान्न युज्यते । कर्तृमत्वे तु संसाध्ये दृश्यवद्धेतुसंभवः ॥ १८९॥ "युक्तिश्च, कर्तृमान् वेदः पदवाक्यादिरूपतः । विधेय प्रतिषेध्यार्थयुक्तत्वान्मैत्रकाव्यवत् ॥ १९०॥ ब्रह्मप्रजापतिप्रायः पुरुषेभ्यश्च संभवः । श्रूयते वेदशास्त्रस्य नापनेतुं स शक्यते ॥१९१॥ स्यात्ते मतिर्न कर्तारः प्रवक्तारः श्रुतेः स्मृताः । तथा नाम प्रवक्तारो रागद्वेषादिभिर्युताः ॥१९२॥
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विषयमें वेदमें प्रमाणता आती है, अतः वक्तृत्व हेतुके बलसे सर्वंज्ञके विषयमें दूषण उपस्थित करने में इसका आश्रय करना उचित नहीं है अर्थात् वेदार्थंका प्रत्यक्ष ज्ञान न होनेसे उसके बलसे सर्वंज्ञके अभावकी सिद्धि नहीं की जा सकती ॥ १८४ ॥ | फिर थोड़ा विचार तो करो कि सर्वज्ञताके साथ वक्तृत्वका क्या विरोध है ? मैं तो कहता हूँ कि सर्वज्ञताका सुयोग मिलनेपर यह पुरुष अधिक वक्ता अपने आप हो जाता है || १८५ || जो बेचारा स्वयं नहीं जानता है वह बुद्धिका दरिद्र दूसरोंके लिए क्या कह सकता है ? अर्थात् कुछ नहीं । इस प्रकार व्यतिरेक और अविनाभावका अभाव होनेसे वह साधक नहीं हो सकता || १८६ | | हमारा पक्ष तो यह है कि जिस प्रकार कि सुवर्णादिक धातुओंका मल किसी में बिलकुल ही क्षीण हो जाता है उसी प्रकार यह अविद्या अर्थात् अज्ञान और रागादिक मल कारण पाकर किसी पुरुषमें अत्यन्त क्षीण हो जाते हैं । जिसमें क्षीण हो जाते हैं वही सर्वज्ञ कहलाने लगता है || १८७|| हमारे सिद्धान्त से पदार्थोंके जो धर्म अर्थात् विशेषण हैं वे अपने से विरुद्ध धर्मकी अपेक्षा अवश्य रखते हैं जिस प्रकार कि उत्पल आदिके लिए जो नील विशेषण दिया जाता है उससे यह सिद्ध होता है कि कोई उत्पल ऐसा भी होता है जो कि नोल नहीं है । इसी प्रकार पुरुषके लिए जो आपके यहाँ असर्वज्ञ विशेषण है वह सिद्ध करता है कि कोई पुरुष ऐसा भी है जो असर्वज्ञ नहीं है अर्थात् सर्वज्ञ है । यथार्थमें विशेषणकी सार्थकता सम्भव और व्यभिचार रहते ही होती है जैसा कि अन्यत्र कहा है- 'सम्भवव्यभिचाराभ्यां स्याद्विशेषणमर्थवत् । न शैत्येन न चौष्ण्येन वह्निः क्वापि विशिष्यते ॥' अर्थात् सम्भव और व्यभिचारके कारण ही विशेषण सार्थक होता है । अग्नि के लिए कहीं भी शीत विशेषण नहीं दिया जाता क्योंकि वह सम्भव नहीं है इसी प्रकार कहीं भी उष्ण विशेषण नहीं दिया जाता क्योंकि अग्नि सर्वत्र उष्ण ही होती है । इसी प्रकार तुम्हारे सिद्धान्तानुसार यदि पुरुष असर्वज्ञ ही होता तो उसके लिए असवंज्ञ विशेषण देना निरर्थक था । उसकी सार्थकता तभी है जब किसी पुरुषको सर्वज्ञ माना जावे || १८८|| 'वेदका कोई कर्ता नहीं है' यह बात युक्ति के अभावमें सिद्ध नहीं होती अर्थात् अकर्तृत्वको संगति नहीं बैठती जब कि 'वेदका कर्ता है' इस विषय में अनेक हेतु सम्भव हैं । जिस प्रकार दृश्यमान घटपटादि पदार्थं सहेतुक होते हैं उसी प्रकार 'वेद सकर्ता है' इस विषय में भी अनेक हेतु सम्भव हैं ।। १८९ || चूँकि वेद पद और वाक्यादि रूप है तथा विधेय और प्रतिषेध्य अर्थसे युक्त है अतः कर्तृमान् है, किसीके द्वारा बनाया गया है। जिस प्रकार मैत्रका काव्य पदवाक्य रूप होनेसे कर्तृक है उसी प्रकार वेद भी पदवाक्य रूप होनेसे सकर्तृक है || १९० || इसके साथ लोकमें यह सुना जाता है कि वेदकी उत्पत्ति ब्रह्मा तथा प्रजापति आदि पुरुषोंसे हुई है सो इस प्रसिद्धिका दूर किया जाना शक्य नहीं है || १९१ || सम्भवतः तुम्हारा यह विचार हो कि बह्मा आदि वेद
१. यागादिकं म । २. धर्मे आपेक्षित विपर्ययः म., ख., ब. । ३. युक्तेश्च म । युक्तश्च ख. । ४. कृत्रिमो ख. । ५. विधेयप्रतिषेधार्थं म. ।
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