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एकादशं पर्व
ततस्ते 'विस्वरोदारं क्रोशन्तोऽभिदधुः स्वरम् | किमर्थं देव रुष्टोऽसि येनास्मान् हन्तुमुद्यतः ॥९७॥ प्रसीद मुञ्च निर्दोषानस्मान् देव महाबल । भवदाज्ञां वयं सर्वां कुर्मः प्रणतमूर्तयः ॥ ९८ ॥ ततो बभाण तान् रक्षः यथैव पशवो हताः । भवद्भिरिपूर्ति स्वर्गं तथा यूयं मया हताः ॥ ९९ ॥ इत्युक्त्वा विजने कांश्चिद् द्वीपेऽन्यस्मिन्निरक्षिपत् । महार्णवे परानन्यान्क्रूरप्राणिगणान्तरे ॥ १०० ॥ एकानास्फालयन् क्षोणीधरमूर्धिन शिलातले । कुर्वन् बहुविधं शब्दं वासांसि रजको यथा ॥१०१॥ दुःखेन मरणावस्थां प्राप्तास्ते त्रस्तचेतसः । पितरौ तनयान् भ्रातॄन् स्मरन्तो मृत्युमापिताः ॥१०२॥ तद्व्यापादितशेषा ये मूढाः कुग्रन्थकन्यया । रक्षसा दर्शितो हिंसायज्ञस्तैर्वृद्धिमाहृतः ॥१०३॥ हिंसायज्ञमिमं घोरमा चरन्ति न ये जन्दाः । दुर्गतिं ते न गच्छन्ति महादुःखविधायिनीम् ॥१०४॥ उदाहृतो मया यस्तै हिंसायज्ञसमुद्भवः । श्रेणिकैनं पुराजासीत् प्राज्ञो रत्नश्रवासुतः ॥ १०५ ॥ अथ राजपुरं प्राप्तो रावणः स्वर्गसंनिभम् । बहिर्यस्य 'मरुत्वाख्यो यज्ञवाटे स्थितो नृपः ॥ १०६॥ हिंसाधर्मप्रवीणश्च संवर्तो नाम विश्रुतः । ऋत्विक् तस्मै ददौ कृत्स्नमुपदेशं यथाविधि ॥ १०७ ॥ सूत्रकण्ठाः पृथिव्यां ये सर्वे तेऽत्र निमन्त्रिताः । पुत्रदारादिभिः सार्धमागता लोभवाहिताः ॥१०८॥ सा तैर्यज्ञमही सर्वा देवमङ्गलनिःस्वनैः । लाभाकाङ्क्षा प्रसन्नास्यैर्वृता क्षुभ्यत्सुभूरिभिः ॥ १०९ ॥
और पैर के पंजे सिरपर आ लगते थे तथा पड़ती हुई खूनकी धाराओंसे वे बहुत दुःखी हो जाते थे ||९४-९६।। इस कार्यसे वे सब बहुत भयंकर शब्द करते हुए चिल्लाते थे और कहते थे कि हे देव ! तुम किस लिए रुष्ट हो गये हो जिससे हम सबको मारनेके लिए उद्यत हुए ॥९७॥ हे देव ! तुम महाबलवान् हो, प्रसन्न होओ, हम सब निर्दोष हैं अतः हम लोगों को छोड़ो। हम सब आपके समक्ष नतशरीर हैं और आप जो आज्ञा देंगे उस सबका पालन करेंगे ॥९८॥ तदनन्तर राक्षस उनसे कहता था कि जिस प्रकार तुम्हारे द्वारा मारे हुए पशु स्वर्ग जाते हैं उसी प्रकार मेरे द्वारा मारे गये आप लोग भी स्वर्गं जावेंगे ॥ ६६९ || ऐसा कहकर उसने कितने ही लोगोंको जहाँ मनुष्योंका सद्भाव नहीं था ऐसे दूसरे द्वीपोंमें डाल दिया । कितने ही लोगों को समुद्र में फेंक दिया, कितने ही लोगोंको सिंहादिक दुष्ट जीवोंके मध्य डाल दिया और जिस प्रकार धोबी अनेक प्रकारके शब्द करता हुआ शिलातलपर वस्त्र पछाड़ता है उसी तरह कितने ही लोगोंको घुमा घुमाकर पर्वतकी चोटी पर पछाड़ दिया || १०० - १०१ ॥ दुःखसे वे मरणासन्न अवस्थाको प्राप्त हो गये थे, उन सबके चित्त भयभीत थे, और अन्तमें माता पिता, पुत्र और भाई आदिका स्मरण करते हुए मृत्युको प्राप्त हो गये ॥ १०२ ॥ जो मरनेसे बाकी बचे थे वे मिथ्या शास्त्ररूपी कन्यासे मोहित थे अतः उन्होंने राक्षसके द्वारा दिखलाये हुए हिंसायज्ञकी वृद्धि की ॥ १०३ ॥ | गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे राजन् ! जो मनुष्य इस भयंकर हिंसायज्ञको नहीं करते वे महादुःख देनेवाली दुर्गतिमें नहीं जाते हैं ||१०४ ॥ हे श्रेणिक ! मैंने यह तेरे लिए हिंसायज्ञकी उत्पत्ति कही। रावण इसे पहले से ही जाता था || १०५॥ अथानन्तर रावण, स्वर्गकी तुलना करनेवाले उस राजपुर नगर में पहुँचा जहाँ मरुत्वान् नामका राजा नगरके बाहर यज्ञशाला में बैठा था ॥ १०६ ॥ हिंसाधर्ममें प्रवीण संवर्त नामका प्रसिद्ध ब्राह्मण उस यज्ञका प्रधान याजक था जो राजाके लिए विधिपूर्वक सब उपदेश दे रहा था ॥१०७॥ पृथ्वी में जो ब्राह्मण थे वे सब इस यज्ञ में निमन्त्रित किये गये थे इसलिए लोभके वशीभूत स्त्री-पुत्रादिके साथ वहाँ आये थे || १०८॥ लाभकी आशासे जिनके मुख प्रसन्न थे तथा जो वेदका
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१. विश्वरोदारं म., ब, क, ख । २. ऋ गती इत्यस्य लङ्बहुवचने रूपम् । बहुलं छन्दसीत्येव सिद्धे 'अतिपिपर्त्योश्चेतीत्व - विधानादयं भाषायामपि । 'अभ्यासस्यासवर्णे' इतीयङ् इर्यात इयूतः इयूति । गच्छन्तीत्यर्थः । रियति म । ३. निरक्षिपेत् म । ४. मीयूति म । मोप्रति क, ख । ५. रक्षिता ख. । ६. पास्त म. । ७. श्रेणिकेन ख. । ८. मरुत्ताख्यो म । ९. यक्षवादे क, ख । १०. लोकवाहिताः म. ।
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