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पद्मपुराणे संबन्धो द्विविधो यौनः शास्त्रीयश्च तयोः परम् । शास्त्रीयमेव मन्येऽहमयं मलविवर्जितः ॥५५॥ अतो नाथस्य मे शिष्यः पुत्र एव भवानपि । पश्यन्ती भवतो लक्ष्मीं करोमि तिमात्मनः ॥५६॥ दक्षिणां च गृहाणेति पुत्र प्रोक्तं त्वया सुत । मया चोक्तं गृहीष्यामि कालेऽन्यस्मिन्निति स्मर ॥५७॥ सत्यं वदन्ति राजानः पृथिवीपालनोद्यताः। ऋषयस्ते हि माष्यन्ते ये स्थिता जन्तुपालने ॥५८॥ 'सत्येन श्रावितः स त्वं मह्यं तां यच्छ दक्षिणाम् । इत्युक्तश्चावदद्वाजा विनयानतमस्तकः ॥५९॥ अम्ब ते वचनादद्य करोम्यथ जुगुप्सितम् । वद यत्ते स्थितं चित्ते मा कृथा मतिमन्यथा ॥६॥ तमुदन्तं ततोऽशेषं निवेद्यास्मै जगाद सा। पुत्रस्यानृतमप्येतदनुमान्यं त्वया मम ॥६१॥ जानतापि ततो राज्ञा नीतेन स्थिरतां पुनः । मूढसत्यगृहीतेन प्रतिपन्नं तयोदितम् ॥६२॥ पुनरुक्तं प्रियं भूरि भाषित्वाशीःपुरस्सरम् । आनछे निलयं तुष्टा भृशं स्वस्तिमती ततः ॥६३॥ अथान्यस्य दिनस्यादौ गतौ नारदपर्वतौ । समीपं क्षितिपालस्य कुतूहलिजनावृती ॥६॥ चतुर्विधो जनपदो नाना प्रकृतयस्तथा । सामन्ता मन्त्रिणश्चाशु विविशुर्जल्पमण्डलम् ॥६५॥ ततस्तयोः सतां मध्ये विवादः सुमहानभूत् । ब्रीहयोऽजा विबीजा ये पशवश्चेति वस्तुनि ॥६६॥ ततस्ताभ्यां वसुः पृष्टो यदुपाध्याय उक्तवान् । तत्त्वं वद महाराज सत्येन श्रावितो भवान् ॥६७॥ यदेतत्पर्वतेनोक्तं तदुपाध्याय उक्तवान् । इत्युक्ते स्फटिकं यातं वसोः क्षिप्रं महीतले ॥६॥
रहती हूँ क्योंकि पतिके द्वारा छोड़ी हुई कौन-सी स्त्री सुख पाती है ? ||५४।। सम्बन्ध दो प्रकारका है एक योनिसम्बन्धी और दूसरा शास्त्रसम्बन्धी। इन दोनोंमें मैं शास्त्रीय सम्बन्धको ही उत्तम मानती हूँ क्योंकि यह निर्दोष सम्बन्ध है ।।५५॥ चूँकि तुम मेरे पतिके शिष्य हो अतः तुम भी मेरे पुत्र हो। तुम्हारी लक्ष्मीको देखते हुए मुझे सन्तोष होता है ॥५६॥ हे पुत्र ! एक बार तुमने कहा था कि दक्षिणा ले लो तब मैंने कहा था कि फिर किसी समय ले लूँगी। स्मरण करो ॥५७।। पृथिवीकी रक्षा करनेमें तत्पर राजा लोग सदा सत्य बोलते हैं। यथार्थमें जो जीवोंकी रक्षा करने में तत्पर हैं वे ही ऋषि कहलाते हैं ।।५८|| तुम सत्यके कारण जगत् में प्रसिद्ध हो अतः मेरे लिए वह दक्षिणा दो। गरानीके ऐसा कहनेपर राजा वसूने विनयसे मस्तक झकाते हुए कहा ॥५९|| कि हे माता ! तुम्हारे कहनेसे मैं आज घृणित कार्य भी कर सकता हूँ। जो बात तुम्हारे मनमें हो सो कहो अन्यथा विचार मत करो ॥६०॥ तदनन्तर स्वस्तिमतीने उसके लिए नारद और पर्वतके विवादका सब वृत्तान्त कह सुनाया और साथ ही इस बातकी प्रेरणा की कि यद्यपि मेरे पुत्रका पक्ष मिथ्या ही है तो भी तुम इसका समर्थन करो ॥६१।। राजा वसु यद्यपि शास्त्रके यथार्थ अर्थको जानता था पर स्वस्तिमतीने उसे बार-बार प्रेरणा देकर अपने पक्षमें स्थिर रखा। इस तरह मूर्ख सत्यके वश हो राजाने उसकी बात स्वीकृत कर ली ॥६२॥ तदनन्तर स्वस्तिमती राजा वसुके लिए बार-बार अनेकों प्रिय आशीर्वाद देकर अत्यन्त सन्तुष्ट होती हुई अपने घर गयो ॥६३।।
___अथानन्तर दूसरे दिन प्रातःकाल ही नारद और पर्वत राजा वसुके पास गये। कुतूहलसे भरे अनेकों लोग उनके साथ थे ॥६४॥ चार प्रकारके जनपद, नाना प्रजाजन, सामन्त और मन्त्री लोग शीघ्र ही उस वादस्थलमें आ पहुंचे ॥६५॥ तदनन्तर सज्जनोंके बीच नारद और पर्वतका बड़ा भारी विवाद हुआ। उनमें से नारद कहता था कि अजका अर्थ बीजरहित धान है और पर्वत कहता था कि अजका अर्थ पशु है ।।६६।। जब विवाद शान्त नहीं हुआ तब उन्होंने राजा वसुसे पूछा कि हे महाराज ! इस विषयमें गुरु क्षीरकदम्बकने जो कहा था सो आप कहो। आप अपनी सत्यवादितासे प्रसिद्ध हैं॥६७।। इसके उत्तरमें राजा वसूने कहा कि पर्वतने १. पश्यन्तो म.। २. दक्षिणां च गृहीष्यामि पुरा प्रोक्तं च या सुत म.। ३. ऋषयस्नेहि ( ? ) म.। ४. सत्येव म. । ५. कुतूहल -म. ।
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