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एकादशं पर्व
२४१ अजैर्यष्टव्यमित्यस्य वाक्यस्यार्थो दयापरः । अयं मुनिभिराख्यातो ग्रन्थार्थग्रन्थिभेदिभिः ।।४१।। अजास्ते जायते येषां नाङ्कुरः सति कारणे । सस्यानां यजनं कार्यमेतैरिति विनिश्चयः ।।४२॥ अजाः पशव उद्दिष्टा इति पर्वतकोऽवदत् । तेषामालम्भनं कार्य 'तञ्च यागोऽभिधीयते ॥४३॥ नारदः कुपितोऽवोचत्ततः पर्वतकं खलम् । मैवं वोचः पतस्येवं नरके घोरवेदने ॥४४॥ प्रतिज्ञां चाकरोदेवमावयोर्योऽवसीदति । वसुं प्राश्निकमासाद्य तस्य जिह्वा निकृत्यते ।।४५।। अतिक्रान्ता वसुं द्रष्टुं वेलाद्य श्वो विनिश्चयः । भवितेत्यभिधायागात् पर्वतो मातुरन्तिकम् ॥४६॥ तस्यै चाकथयन्मूलं कलहस्याभिमानवान् । ततो जगाद सा पुत्र त्वया निगदितं मृषा ॥४७॥ कुर्वतोऽनेकशो व्याख्यां मया तव पितुः श्रुतम् । अजाः किलाभिधीयन्ते व्रीहयो येऽप्ररोहकाः ॥४८॥ देशान्तरं प्रयातेन मांसभक्षणकारिणा। मानाच्च वितथं प्रोक्तं तवेदं दुःखकारणम् ॥४९॥ रसनाच्छेदनं पुत्र नियतं ते भविष्यति । अपुण्या किं करिष्यामि पतिपुत्रविवर्जिता ॥५०॥ सस्मार सा पुरा प्रोक्ता वसुना गुरुदक्षिणाम् । न्यासभूतां गता चाशु वसोरन्तकमाकुला ॥५१॥ उपाध्यायीति चोदारमादरं विदधे वसुः । प्रणम्य च सुखासीनां पप्रच्छ रचिताञ्जलिः ॥५२॥ उपाध्यायि नियच्छाज्ञामायाता येन हेतुना । सर्व संपादयाम्याशु दुःखितेव च दृश्यते ॥५३॥
उवाच स्वस्तिमत्येवं नित्यं पुत्रास्मि दुःखिता । प्राणनाथपरित्यक्ता का वा स्त्री सुखमृच्छति ॥५४॥ है। यज्ञका अन्तर्भाव इसी अतिथिसंविभाग व्रतमें होता है ॥४०॥ ग्रन्थोंके अर्थकी गाँठ खोलनेवाले दयालु मुनियोंने 'अजैर्यष्टव्यम्' इस वाक्यका यह अर्थ बतलाया है ॥४१॥ कि अज उस पुराने धानको कहते हैं जिसमें कि कारण मिलनेपर भी अंकुर उत्पन्न नहीं होते। ऐसे धानसे ही यज्ञ करना चाहिए ॥४२॥ नारदकी इस व्याख्याको सुनकर तमककर पर्वत बोला कि नहीं अज नाम पशुका है अतः उनकी हिंसा करनी चाहिए यही यज्ञ कहलाता है ॥४३॥ इसके उत्तर में नारदने कुपित होकर दुष्ट पर्वतसे कहा कि ऐसा मत कहो क्योंकि ऐसा कहनेसे भयंकर वेदनावाले नरकमें पड़ोगे ॥४४॥ अपने पक्षकी प्रबलता सिद्ध करते हुए नारदने यह प्रतिज्ञा भी की कि हम दोनों राजा वसुके पास चलें, वहां जो पराजित होगा उसकी जिह्वा काट ली जावे ॥४५॥ 'आज राजा वसुके मिलनेका समय निकल चुका है इसलिए कल इस बातका निश्चय होगा' इतना कहकर पर्वत अपनी माताके पास गया ॥४६|| अभिमानी पर्वतने कलहका मूल कारण माताके लिए कह सुनाया। इसके उत्तर में माताने कहा कि हे पूत्र! तूने मिथ्या बात कही है ।।४७|| अनेकों बार व्याख्या करते हुए तेरे पितासे मैंने सुना है कि अज उस धानको कहते हैं कि जिसमें अंकुर उत्पन्न नहीं होते ॥४८।। तू देशान्तरमें जाकर मांस भक्षण करने लगा इसलिए अभिमानसे तूने यह मिथ्या बात कही है। यह बात तुझे दुःखका कारण होगी ॥४९॥ हे पुत्र ! निश्चित ही तेरी जिह्वाका छेद होगा। मैं अभागिनी पति और पुत्रसे रहित होकर क्या करूँगी? ॥५०॥ उसी क्षण उसे स्मरण आया कि एक बार राजा वसुने मुझे गुरु दक्षिणा देना कहा था और मैंने उसे धरोहरके रूपमें उन्हींके पास रख दिया था। स्मरण आते हो वह तत्काल घबड़ायी हुई राजा वसुके पास पहुंची ॥५१॥ 'यह हमारी गुरानी है' यह विचारकर राजा वसुने उसका बहुत सत्कार किया, उसे प्रणाम किया और जब वह आसनपर सुखसे बैठ गयी तब हाथ जोड़कर विनयसे पूछा ॥५२॥ कि हे गुरानी ! मुझे आज्ञा दीजिए। जिस कारण आप आयी हैं मैं उसे अभी सिद्ध करता हूँ। आप दुःखीसी क्यों दिखाई देती हैं ? ॥५३।। इसके उत्तर में स्वस्तिमतीने कहा कि हे पुत्र ! मैं तो निरन्तर दुःखी
१. स च म.। २. विधीयते म.। ३. छिद्यते । निकृन्त्यते म.। ४. दृष्टं म.। ५. व्याख्या म.। ६.ये प्ररोहकाः म.। ७. सस्मार च क., ख. । सस्मार पुरा स.। ८. न्याय -म. । ९. उपाध्यायोति म..
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