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एकादशं पर्व
२३१ विनीतायां महानासीदिक्ष्वाकुकुलभूषणः । ययाति म राजास्य सुरकान्तेति भामिनी ॥१३॥ वसुर्नामाभवत्तस्य गुरोर्योग्यः स चार्पितः । नाम्ना क्षीरकदम्बस्य यस्य स्वस्तिमती प्रिया ।।१४॥ अन्यदारण्यक शास्त्रं सर्वशास्त्रविशारदः । अध्यापयत्यसौ शिष्यान्नारदादीन् वनान्तरे ॥१५॥ अथ चारणसाधूनां स्थितानां विहायसा । एकेन यतिना प्रोक्तमेवं कारुण्यकारिणा ॥१६॥ चतुर्णां प्राणिनामेषामेको नरकभागिति । श्रुत्वा क्षीरकदम्बस्तद्वचो भीतोऽभवद् भृशम् ॥१७॥ ततोऽन्तेवासिनस्तेन प्रेषिताः स्वस्वमालयम् । ययुस्तुष्टा यथा वत्सा मुक्ता दामकबन्धनात् ॥१८॥ स्वस्तिमत्यथ पप्रच्छ पुत्रं पर्वतसंज्ञकम् । क्व तवासौ पिता पुत्र येनैकाकी स्वमागतः ।।१९।। 'पश्चादेमीति तेनोक्तमिति तस्यै जगाद सः । तदागर्म च काक्षत्यास्तस्या यातमहाक्षयम् ॥२०॥ नायातः स दिनान्तेऽपि यदा तिमिरगह्वरे । तदा शोकमराक्रान्ता पतितासौ महीतले ॥२१॥ चक्रवाकीव दुःखार्ता विलापं चाकरोदिति । हा हता मन्दभाग्यास्मि प्राणानां स्वामिनोज्झिता ॥२२॥ पापेन केनचिन्मृत्यं किमसौ प्रापितो भवेत् । किं वा देशान्तरं यातः कान्तः केनापि हेतना ॥२३॥ सर्वशास्त्रार्थकुशलः किं वा वैराग्यमाश्रितः । सर्वसंगान परित्यज्य प्रव्रज्यां समशिश्रियत् ॥२४॥ विलापमिति कुर्वन्त्यास्तस्याः सा रजनी गता। अन्वेष्टुं पितरं चादावह्वः पर्वतको गतः ॥२५॥ दृष्ट्वा सरित्तटोद्याने दिनैः कैश्चिद् गुरुं मुनिम् । गुरोः सङ्घसमेतस्य समीपे विनयस्थितम् ॥२६॥ आरादेव निवृत्त्याख्यन्मातरं च पिता मम । विप्रलब्धोऽभवन्नग्नः श्रमणैस्तत्परायणैः ॥२७॥
अयोध्यानगरीमें इक्ष्वाकुकुलका आभूषणस्वरूप एक ययाति नामका राजा था और सुरकान्ता नामकी उसकी रानी थी ।।१३।। उन दोनोंके वसु नामका पुत्र हुआ। जब वह पढ़नेके योग्य हुआ तब क्षीरकदम्बक नामक गुरुके लिए सौंपा गया। क्षीरकदम्बककी स्त्रीका नाम स्वस्तिमती था ||१४|| किसी एक दिन सर्वशास्त्रोंमें निपूण क्षीरकदम्बक, वनके मध्य में नारद आदि शिष्योंको आरण्यकशास्त्र पढा रहा था ॥१५॥ वहीं आकाशमार्गसे विहार करनेवाले चारण का संघ विराजमान था। उनमें से एक दयालु मुनिने इस प्रकार कहा कि इन चार प्राणियोंमें से एक नरकको प्राप्त होगा। मुनिके वचन सुन क्षीरकदम्बक अत्यन्त भयभीत हो गया ॥१६-१७|| तदनन्तर उसने नारद, पर्वत और वसु इन तीनों शिष्योंको अपने-अपने घर भेज दिया और वे शिष्य भी बन्धनसे छोड़े गये बछड़ोंके समान सन्तुष्ट होते हुए अपने-अपने घर गये ॥१८॥ जब पवंत अकेला ही घर पहुंचा तब उसकी माता स्वस्तिमतीने पूछा कि हे पुत्र ! तुम्हारे पिता कहाँ हैं ? जिससे कि तुम अकेले ही आये हो ||१९|| पर्वतने माताको उत्तर दिया कि उन्होंने कहा था कि पीछे आते हैं । पतिके आगमनकी प्रतीक्षा करते हुए स्वस्तिमतीका दिन समाप्त हो गया ॥२०॥ जब दिनका बिलकुल अन्त हो गया और सघन अन्धकार फैल चुका फिर भी वह नहीं आया तब स्वस्तिमती शोकके भारसे आक्रान्त हो पृथ्वीपर गिर पड़ी ॥२१॥ वह दुःखसे पीड़ित हो चकवीके समान इस प्रकार विलाप करने लगी कि हाय-हाय मैं बड़ी मन्दभाग्य हूँ जो पतिके द्वारा छोड़ी गयी ॥२२॥ क्या मेरा पति किसी पापी मनुष्यके द्वारा मत्यको प्राप्त हआ है अथवा किसी कारण परदेशको चला गया है ? ॥२३।। अथवा समस्त शास्त्रोंमें कुशल होनेसे वैराग्यको प्राप्त हो सवं परिग्रहका त्याग कर मुनिदीक्षाको प्राप्त हुआ है ? ॥२४॥ इस प्रकार विलाप करते-करते स्वस्तिमतीकी रात्रि भी व्यतीत हो गयी। जब प्रातःकाल हुआ तब पर्वत पिताको खोजने के लिए गया ॥२५॥ लगातार कुछ दिनों तक खोज करनेके बाद पर्वतने देखा कि हमारे पिता नदीके तटवर्ती उद्यानमें मुनि होकर विद्यमान हैं। संघसहित गुरुके समीप विनयसे बैठे हैं ।।२६।। उसने दूरसे ही लौटकर १. नामा क., ख.। २. विशारदं म., ब. । ३. प्रथितानां म.। ४ दामकबन्धनान् म.। ५. पश्चादागति क., ख. । ६. अन्वेष्टं म. ।
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