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एकादश पर्व
अथ कैलाससंक्षोमो यान् यान् मानवतो नृपान् । शृणोति धरणीयातांस्तांस्तान्सर्वाननीनमत् ॥ १॥ वशीकृतैश्च संमानं प्रापितैर्वेष्टितो नृपैः । पश्यन् स्फीतपुरामुर्वी सुभूमश्चक्रभृद्येथा ॥ २ ॥ नानादेशसमुत्पन्नैर्नानाकारैर्नरैर्वृतः । नानाभूषाधरैर्नानामाषैर्विविधवाहनैः ॥३॥ कारयन् 'जीर्णचैत्यानां संस्कारान् परमां तथा । पूजां देवाधिदेवानां जिनेन्द्राणां सुभावितः ॥४॥ ध्वंसयन् जिनविद्वेषकारिणः खलमानवान् । 'दुर्विधान् करुणायुक्तो धनेन परिपूरयन् ॥५॥ सम्यग्दर्शनसंशुद्धान् वत्सलः पूजयञ्जनान् । प्रणमन् श्रमणान् भक्त्या रूपमात्रश्रितानपि ॥ ६ ॥ उदीचीं प्रस्थितः काष्ठां प्रतापं दुस्सहं किरन् । यथोत्तरायणे मानुः पुण्यकर्मानुभावतः ॥७॥ बलवांश्च श्रुतस्तेन राजा राजपुराधिपः । अभिमानं परं बिभ्रत्परप्रणतिवर्जितः ||८|| "जन्मप्रभृति दुश्चेता लौकिकोन्मार्गमोहितः । प्रविष्टः प्राणिविध्वंसं यज्ञदीक्षाख्यपातकम् ||९|| अथ यज्ञध्वनिं श्रुत्वा श्रेणिको गणपालिनम् । इत्यपृच्छद् विभो तावदास्तां रावणकीर्तनम् ॥१०॥ उत्पत्ति भगवन्नस्य यज्ञस्येच्छामि वेदितुम् । प्रवृत्तो दारुणो यस्मिन् जैनो जन्तुविनाशने ॥११॥ उवाच च गणाधीशः शृणु श्रेणिक शोभनम् । भवता पृष्टमेतेन बहवो मोहिता जनाः ||१२||
अथानन्तर रावणने पृथ्वीपर जिन-जिन राजाओंको मानी सुना उन सबको नम्रीभूत किया ||१|| जिन राजाओंको इसने वश किया था उनका सम्मान भी किया और ऐसे उन समस्त राजाओंसे वेष्टित होकर उसने बड़े-बड़े ग्रामोंसे सहित पृथ्वीको देखते हुए सुभूमचक्रवर्तीके समान भ्रमण किया ॥२॥ इसके साथ नाना देशोंमें उत्पन्न हुए नाना आकार के मनुष्य थे । वे मनुष्य नाना प्रकार के आभूषण पहने हुए थे, नाना प्रकारकी उनकी चेष्टाएँ थीं और नाना प्रकारके वाहनोंपर वे आरूढ़ थे || ३ || वह जीणं मन्दिरोंका जीर्णोद्धार कराता जाता था और देवाधिदेव जिनेन्द्रदेवकी बड़े भावसे पूजा करता था ॥४॥ जैनधर्मके साथ द्वेष रखनेवाले दुष्ट मनुष्योंको नष्ट करता था और दरिद्र मनुष्योंको दयासे युक्त हो धनसे परिपूर्ण करता था ॥५॥ सम्यग्दर्शनसे शुद्ध जनोंकी बड़े स्नेहसे पूजा करता था और जो मात्र जैनमुद्राको धारण करनेवाले थे ऐसे मुनियों को भी भक्तिपूर्वक प्रणाम करता था || ६ || जिस प्रकार उत्तरायणके समय सूर्य दुःसह प्रताप बिखेरता हुआ उत्तर दिशाकी ओर प्रस्थान करता है उसी प्रकार रावणने भी पुण्य कर्मके उदयसे दुःसह प्रताप बिखेरते हुए उत्तर दिशाकी ओर प्रस्थान किया ||७||
अथानन्तर रावणने सुना कि राजपुरका राजा बहुत बलवान् है । वह बहुत भारी अहंकारको धारण करता हुआ कभी किसीको प्रणाम नहीं करता है ॥८॥ जन्मसे ही लेकर दुष्ट- चित्त है, लौकिक मिथ्या मार्गसे मोहित है, और प्राणियोंका विध्वंस करानेवाले यज्ञ दीक्षा नामक महापापको प्राप्त है अर्थात् यज्ञक्रियामें प्रवृत्त है ||९|| तदनन्तर यज्ञका कथन सुन राजा श्रेणिकने गौतम गणधर से पूछा कि हे विभो ! अभी रावणकी कथा रहने दीजिए। पहले मैं इस यज्ञकी उत्पत्ति जानना चाहता हूँ कि जीवोंका विघात करनेवाले जिस यज्ञमें दुष्टजन प्रवृत्त हुए हैं ॥१०-११॥ तब गणधर बोले कि हे श्रेणिक ! सुन, तूने बहुत अच्छा प्रश्न किया है । इस यज्ञके द्वारा बहुत से जन मोहित हो रहे हैं ॥ १२ ॥
१. चक्रवद्यथा म. । २. शीर्ण क., ख., म. । ३. सभावितः क, ख । सुभाविताम् म । ४. दरिद्रान् । ५. जन्मनः प्रभृति म । ६. दुश्चेतो -क., ख. । ७. जना म. ।
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