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दशमं पर्व
२३७ अभिनन्येति संविग्नः क्षिप्त्वा लक्ष्मी शरीरजे । सुतेन ज्यायसा साकमनरण्योऽभवन्मुनिः ॥१७६॥
रथोद्धतावृत्तम् येन केनचिदुदात्तकर्मणा कारणेन रिपुणेतरेण वा। निर्मितेन समवाप्यते मतिः श्रेयसी न तु निकृष्टकर्मणा ॥१७७॥ यः प्रयोजयति मानसं शुभे यस्य तस्य परमः स बान्धवः । भोगवस्तुनि तु यस्य मानसं यः करोति परमारिरस्य सः ॥१७८॥ मावयन्निति सहस्रदीधितिं योऽनरण्यनृपति शृणोति च । संयुतं श्रमणशीलसंपदा स बजत्यमलतां यथा रविः ॥१७९॥
इत्यार्षे रविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मचरिते दशग्रीवप्रस्थाने सहस्ररश्म्यनरण्य-श्रामण्याभिधानं
नाम दशमं पर्व ॥१०॥
इस प्रकार सहस्ररश्मिकी प्रशंसाकर अनरण्य भी संसारसे भयभीत हो पुत्रके लिए राज्यलक्ष्मी सौंप बड़े पुत्रके साथ मुनि हो गया ॥१७६।।
गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे राजन् ! जब उत्कृष्ट कर्मका निमित्त मिलता है तब शत्रु अथवा मित्र किसीके भी द्वारा इस जीवको कल्याणकारी बुद्धि प्राप्त हो जाती है पर जबतक निकृष्ट कर्मका उदय रहता है तबतक प्राप्त नहीं होती ॥१७७॥ जो जिसके मनको अच्छे कार्यमें लगा देता है यथार्थ में वही उसका बान्धव है और जो जिसके मनको भोगोपभोगको वस्तुओंमें लगाता है वही उसका वास्तविक शत्रु है ।।१७८॥ इस प्रकार सहस्ररश्मिका ध्यान करता हुआ जो मनुष्य मुनियोंके समान शीलरूपी सम्पदासे युक्त राजा अनरण्यका चरित्र सुनता है वह सूर्यके समान निर्मलताको प्राप्त होता है ।।१७९।।
इस प्रकार आर्षनामसे प्रसिद्ध रविषणाचार्य के द्वारा कथित पद्मचरितमें दशाननके प्रयाण के समय
राजा सहस्ररश्मि और अनरण्यकी दीक्षाका वर्णन करनेवाला दशम पर्व पूर्ण हुआ ॥१०॥
१..पुत्रे । २. विकृष्ट -म. । ३. संयतं क..ख., म.। ४. श्रवणशीलसंपदा म.।
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