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पद्मपुराणे
स्वर्गं धिक्च्यु'तियोगेन धिग्देहं दुःखभाजनम् । धिङ् मां वञ्चितमत्यन्तं चिरकालं कुकर्मभिः ॥१६३।। तत्करोमि पुनर्येन न पतामि भवार्णवे । गतिष्वत्यन्तदुःखासु निर्विण्णः पर्यटनहम् ॥१६४॥ उवाचेति दशास्यश्च ननु प्रवयसां नृणाम् । प्रव्रज्या शोभते मद्र त्वं च प्रत्यप्रयौवनः || १६५ || सहस्रांशुरुवाचेति नैव मृत्युर्विवेकवान् । शरधन इवाकस्माद्देहो नाशं प्रपद्यते ॥ १६६ ।। यदि नाम भवेत् सारः कश्चिद्भोगेषु रावण । तातेनैव न मे व्यक्तास्ते स्युरुत्तमबुद्धिना ।। १६७ ।। इत्युक्ता तनये न्यस्य राज्यं परमनिश्चयः । क्षमितो दशवक्त्रेण प्राव्रजत्पितुरन्तिके ॥ १६८ ॥ तेन चाभिहितः पूर्वमयोध्यायाः पतिः सुहृत् । अनरण्योऽनगारत्वं प्रपत्स्येऽहं यदा तदा ।। १६९ ।। तुभ्यं वेदयितास्मीति तथायं तेन भाषितः । ज्ञापनार्थमतोऽनेन तस्मै संप्रेषिता नराः ।। १७० || ततोऽसौ कथिते पुम्भिः श्रुत्वा वाष्पाकुलेक्षणः । विललाप चिरं स्मृत्वा गुणांस्तस्य महात्मनः ॥ १७१।। विषादे च गते मान्द्यमित्युवाच महाबुधः । बन्धुस्तस्य समायातो रिपुवेषेण रावणः ।। १७२ ॥ ऐश्वर्यपञ्जरान्तस्थो विषयैर्मोहितश्विरम् । येनात्यन्तानुकूलेन नरपक्षी विमोचितः ।। १७३ ।। माहिष्मतीपतिर्धन्यः सांप्रतं यो भवार्णवम् । तितीर्षति यमध्वंसबोधपोतसमाश्रितः ॥ १७४।। कृतार्थः सांप्रतं जातो यदन्तेऽत्यन्तदुःखदम् । पापं राज्याख्यमुज्झित्वा व्रतं जैनेश्वरं श्रितः || १७५ ।।
हैं और अन्तमें जो दुःखोंसे बहुल होते हैं उन विषयोंको धिक्कार है || १६२ | | उस स्वर्गके लिए farara है जिससे कि च्युति अवश्यम्भावी है । दुःखके पात्रस्वरूप इस शरीरको धिक्कार है और जो चिरकाल तक दुष्ट कर्मोंसे ठगा गया ऐसे मुझे भी धिक्कार है || १६३|| अब तो मैं वह काम करूँगा जिससे कि फिर संसारमें नहीं पड़े । अत्यन्त दुःखदायी गतियोंमें घूमता- घूमता मैं बहुत खिन्न हो चुका हूँ || १६४ ।। इसके उत्तरमें रावणने कहा कि हे भद्र ! दीक्षा तो वृद्ध मनुष्यों के लिए शोभा देती है अभी तो तुम नवयौवनसे सम्पन्न हो ॥ १६५ ॥ सहस्ररश्मिने रावणकी बात काटते हुए बीच में ही कहा कि मृत्युको ऐसा विवेक थोड़ा ही है कि वह वृद्ध जनको ही ग्रहण करे यौवनवालेको नहीं । अरे ! यह शरीर शरदऋतु के बादल के समान अकस्मात् ही नष्ट हो जाता है ।। १६६ ।
रावण ! यदि भोगों में कुछ सार होता तो उत्तम बुद्धिके धारक पिताजीने ही उनका त्याग नहीं किया होता ॥ १६७॥ ऐसा कहकर उसने दृढ़ निश्चयके साथ पुत्रके लिए राज्य सौंपा और दशानन
क्षमा याचना कर पिता शतबाहुके समीप दीक्षा धारण कर ली ॥। १६८ ।। सहस्ररश्मिने अपने मित्र अयोध्या के राजा अनरण्यसे पहले कह रखा था कि जब मैं दिगम्बर दीक्षा धारण करूँगा तब तुम्हारे लिए खबर दूँगा और अनरण्यने भी सहस्ररश्मिसे ऐसा ही कह रखा था सो इस कथन के अनुसार सहस्ररश्मिने खबर देनेके लिए अनरण्यके पास आदमी भेजे ।। १६९ - १७० ॥ गये हुए पुरुषोंने जब अनरण्य से सहस्ररश्मिके वैराग्यको वार्ता कही तो उसे सुनकर उसके नेत्र आँसुओंसे भर गये । उस महापुरुषके गुणोंका स्मरणकर वह चिरकाल तक विलाप करता रहा || १७१ | | जब विषाद कम हुआ तो महाबुद्धिमान् अनरण्यने कहा कि उसके पास रावण क्या आया मानो शत्रुके वेषमें भाई ही उसके पास आया || १७२ || वह रावण कि जिसने अत्यन्त अनुकूल होकर विषयोंसे मोहित हो चिरकाल तक ऐश्वर्यरूपी पिजड़ेके अन्दर स्थित रहनेवाले इस मनुष्यरूपी पक्षीको मुक्त किया है ॥१७३॥ माहिष्मती के राजा सहस्ररश्मिको धन्य है जो रावण के सम्यग्ज्ञानरूपी जहाजका आश्रय ले संसाररूपी सागरको तैरना चाहता है || १७४ ॥ जो अन्तमें अत्यन्त दुःख देनेवाले राज्य नामक पापको छोड़कर जिनेन्द्रप्रणीत व्रतको प्राप्त हुआ है अब उसकी कृतकृत्यताका क्या पूछना || १७५ ॥
१. सुवियोगेन ब. । द्युतियोगेन म । २. प्रव्रज्यां म । ३ ततो नैव न मे म. । तातेनैव हि मे ख., n. । ४. यमध्वंसं क., ख. । यमध्वंसेन रावणेन निमित्तेन बोधपोतं सम्यग्ज्ञानतरणि समाश्रितः प्राप्तः इत्यर्थः ।
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