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षष्ठं पर्व
खेचराणां विलक्षाणां दृष्ट्वान्योन्यं गतस्विषाम् । प्रवेष्टुं धरणीमासीदभिप्राय स्त्रेपावताम् ||४२४ ॥ अपकर्ण्य ततो धात्रीं खेचरद्युतिवर्णिनीम् । तस्याः पपात किष्किन्धकुमारे दृष्टिरादरात् ||४२५ || ततो मालागुणः कण्ठे दृष्ठे एवास्य संगतः । अन्योऽन्यं च समालापः स्निग्धया रचितोऽनया ||४२६॥ ततो विजयसिंहस्य किष्किन्धान्धकयोर्गता । दृष्टिराहूय तावेवं विद्यावीर्येण गर्वितः ||२७|| विद्याधरसमाजोऽयं क्व भवन्ताविहागतौ । विरूपदर्शनी क्षुद्रौ वानरौ विनयच्युतौ ||४२८|| नेह देशे वनं रम्यं फलैरस्ति कृतानति । न वा निर्झरधारिण्यः सुन्दरा गिरिकन्दराः || ४२९|| वृन्दानि वानरीणां वा कुर्वन्ति कुविचेष्टितम् । मांसलोहितवक्त्राणां प्रवृत्तानां यथेप्सितम् ||४३०॥ आहूताविह नै पेशू कपिनिशाचरौ । दूताधमस्य तस्याद्य करोमि विनिपातनम् ||४३१ ॥ निर्घाटये तामिमावस्माद्देशाच्छाखामृगौ खलौ । वृथा विद्याधरीश्रद्धां दूरं नयत चानयोः || ४३२ || रुष्टौ ततो वचोभिस्तौ परुषैर्वानरध्वजौ । महान्तं क्षोभमायाती सिंहाविव गजान् प्रति ॥ ४३३ || ततः स्वामिपरीवाद महात्राताहता सती । गता क्षोभं चमूवेला रौद्रचेष्टाविधायिनी ॥ ४३४ ॥ कश्चिदास्फालयद्वाममंसं दक्षिणपाणिना । वेगाघातसमुत्सर्पद्रक्त सीकरजालकम् ||४३५|| कश्चिद् दृष्टिं विचिक्षेप क्षेपीयः क्षुब्धमानसः । कोपावेशारुणां भीमां प्रलयोल्कामिवारिषु ॥४३६॥ कश्चिदक्षिणहस्तेन वक्षः कम्प्रेण कोपतः । अस्पृक्षत् सकलं क्रूरकर्म वाञ्छन् महास्पदम् ||४३७||
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धारण करते हुए मलिन मुख हो गये || ४२३ || एक दूसरेको देखनेसे जिनकी कान्ति नष्ट हो गयी थी ऐसे लज्जायुक्त विद्याधरोंके मनमें विचार उठ रहा था कि यदि पृथिवी फट जाये तो उसमें हम प्रविष्ट हो जावें ||४२४|| तदनन्तर विद्याधरोंकी कान्तिका वर्णन करनेवाली धायकी उपेक्षा कर श्रीमाली दृष्टि बड़े आदरसे किष्किन्धकुमारके ऊपर पड़ी || ४२५ ॥ उसने लोगोंके देखते-देखते ही वरमाला किष्किन्धकुमारके गलेमें डाल दी और उसी समय स्नेहसे भरी श्रीमालाने परस्पर वार्तालाप किया ||४२६|| तदनन्तर किष्किन्ध और अन्ध्रकरूढिपर विजयसिंह की दृष्टि पड़ी | विद्या बलसे गर्वित विजयसिंह उन दोनोंको बुलाकर कहा ||४२७|| कि अरे ! यह तो विद्याधरोंका समूह है, यहाँ आप लोग कहाँ आ गये ? तुम दोनोंका दर्शन अत्यन्त विरूप है । तुम क्षुद्र हो, वानर हो और विनयसे रहित हो || ४२८|| न तो यहाँ फलोंसे नम्रीभूत मनोहर वन है और न निर्झरोंको धारण करनेवाली पहाड़की गुफाएँ ही हैं ||४२९|| तथा जिनके मुख मांस के समान लाल-लाल हैं ऐसी इच्छानुसार प्रवृत्ति करनेवाली वानरियोंके झुण्ड भी यहाँ कुचेष्टाएँ नहीं कर रहे हैं || ४३०।। इन पशुरूप वानर निशाचरोंको यहाँ कौन बुलाकर लाया है ? 'आज उस नीच दूतका निपातघात करूँ ||४३१॥ यह कह उसने अपने सैनिकोंसे कहा कि इन दुष्ट वानरोंको इस स्थान से निकाल दो तथा इन्हें वृथा ही जो विद्याधरी प्राप्त करनेकी श्रद्धा हुई है उसे दूर कर दो ॥ ४३२ ॥ तदनन्तर विजयसिंह के कठोर शब्दोंसे रुष्ट हो किष्किन्ध और अन्ध्रकरूढि दोनों वानरवंशी उस तरह महाक्षोभको प्राप्त हुए जिस तरह कि हाथियों के प्रति सिंह महाक्षोभको प्राप्त होते हैं ||४३३ ॥ तदनन्तर स्वामीकी निन्दारूपी महावायुसे ताड़ित विद्याधरोंकी सेनारूपी वेला रुद्र-भयंकर चेष्टा करती हुई परम क्षोभको प्राप्त हुई || ४३४|| कोई सामन्त दाहिने हाथसे बायें कन्धेको पीटने लगा । उस समय उसके वेगपूर्ण आघातके कारण बायें कन्धेसे रक्तके छींटोंका समूह उछटने लगा था || ४३५|| जिसका चित्त अत्यन्त क्षुभित हो रहा था ऐसा कोई एक सामन्त शत्रुओंपर क्रोधके आवेश से लाल-लाल भयंकर दृष्टि डाल रहा था । उसकी वह लाल दृष्टि ऐसी जान पड़ती थी मानो प्रलय कालकी उल्का ही हो ||४३६|| कोई सैनिक क्रोधसे काँपते हुए दाहिने हाथसे वक्षःस्थलका स्पर्श कर रहा था और
१. त्रपावतः म. । २. दृष्टिरेवास्य म । ३. गर्विता ख । ४. कृतानतिः म. । ५. पशुकपि म । ६. स्वक्षारणाकृती क., ख. । ७. अघृक्षत् क.
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