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सप्तमं पर्व
रक्तारुणितदेहं च माली द्राक् तमुपागतः । क्रोधारुणः सहस्रांशुर्यथास्तधरणीधरम् ॥८७॥ मानुबिम्बमानेन चक्रेणास्य ततः शिरः । आभिमुख्यमुपेतस्य लूनं पत्या दिवौकसाम् ॥ ८८ ॥ भ्रातरं निहतं दृष्ट्वा नितान्तं दुःखितस्ततः । चिन्तयित्वा महावीर्यं चक्रिणं व्योमगामिनाम् ||८९ ॥ परिवारेण सर्वेण निजेन सहितः क्षणात् । रणात् पलायनं चक्रे सुमाली नयपेशलः ॥ ९० ॥
धार्थं गतं शक्रमनुमार्गेण गेत्वरम् । उवाच प्रणतः सोमः स्वामिभक्तिपरायणः ॥ ९१ ॥ विद्यमाने प्रभो भृत्ये मादृशे शत्रुमारणे । प्रयत्नं कुरुषे कस्मात् स्वयं मे यच्छ शोसनम् ॥ ९२ ॥ एवमस्त्विति चोक्तेऽसावनुमार्ग रिपोर्गतः । बाणपुन्जं विमुञ्चञ्च करौघमिव शत्रुगम् ॥ ९३ ॥ ततस्तदाहतं सैन्यं विशिखैः कपिरक्षसाम् । धाराहतं गवां यद्वत्कुलमाकुलतां गतम् ॥९४॥ पाप न क्षत्रमर्यादां त्वं जानासि मनागपि । जडवर्गपरिक्षिप्त इत्युक्ता प्राप्तकारिणा ||१५|| निवृत्य क्रोधदीप्तेन ततो माल्यवता शेंशी । गाढं स्तनान्तरे भिन्नो भिण्डिमालेन मूच्छितः ||१६|| अयं त्वाश्वास्यते यावन्मूर्च्छामीलितलोचनः । अन्तर्द्धानं गतास्तावद् यातुधानप्लवङ्गमाः ||९० ॥ पुनर्जन्मेव ते प्राप्ता अलंकारोदयं पुरम् । सिंहस्येव विनिःक्रान्ता जठरादागताः सुखम् ||१८|| प्रतिबुद्धः शशाङ्कोऽपि दिशो वीक्ष्य रिपूज्झिताः । स्तूयमानो जयेनार्ययौ मघवतोऽन्तिकम् ||१९|| ध्वस्तशत्रुश्च सुत्रामा वन्दिना निवहैः स्तुतः । अन्वितो लोकपालानां चक्रवालेन तोषिणा ॥१००॥ शक्तिके द्वारा इन्द्रके ललाट के समीप ही जमकर चोट पहुँचायी ॥ ८६ ॥ खूनसे जिसका शरीर लाल हो रहा था ऐसा क्रोधयुक्त माली शीघ्र ही इन्द्रके पास इस तरह पहुँचा जिस तरह कि सूर्यं अस्ताचल के समीप पहुँचता है || ८७ || तदनन्तर माली ज्यों ही सामने आया त्यों ही इन्द्रने सूर्यबिम्बके समान चक्र से उसका सिर काट डाला ||८८ || भाईको मरा देख सुमाली बहुत दुःखी हुआ। उसने विचार किया कि विद्याधरोंका चक्रवर्ती इन्द्र महाशक्तिशाली है अतः इसके सामने हमारा स्थिर रहना असम्भव है । ऐसा विचारकर नीतिकुशल सुमाली अपने समस्त परिवारके साथ उसी समय युद्ध से भाग गया || ८२ - ९० ।। उसका वध करनेके लिए इन्द्र उसी मार्गसे जानेको हुआ तब स्वामिभक्ति में तत्पर सोमने नम्र होकर प्रार्थना की कि हे प्रभो ! शत्रुको मारनेवाले मुझ जैसे भृत्य के रहते हुए आप स्वयं क्यों प्रयत्न करते हैं ? मुझे आज्ञा दीजिए ।९१-९२ ।। 'ऐसा ही हो' इस प्रकार इन्द्रके कहते ही सोम शत्रुके पीछे उसी मार्ग से चल पड़ा । वह शत्रु तक पहुँचनेवाली किरणोके समूहके समान बाणोंके समूहकी वर्षा करता जाता था || १३|| तदनन्तर जिस प्रकार जलवृष्टिसे पीड़ित गायोंका समूह व्याकुलताको प्राप्त होता है उसी प्रकार सोमके पीड़ित वानर और राक्षसोंकी सेना व्याकुलताको प्राप्त हुई ||१४|| तदनन्तर अवसरके योग्य कार्यं करनेवाले, क्रोधसे देदीप्यमान माल्यवान्ने मुड़कर सोमसे कहा कि अरे पापी ! तू मूर्ख लोगों से घिरा है अतः तू युद्धकी मर्यादाको नहीं जानता । यह कहकर उसने भिण्डिमाल नामक शस्त्रसे सोमके वक्षःस्थल में इतनी गहरी चोट पहुँचायी कि वह वहीं मूच्छित हो गया । ९५-९६॥ मूर्च्छा के कारण जिसके नेत्र निमीलित थे ऐसा सोम जब तक कुछ विश्राम लेता है तबतक राक्षस और वानर अन्तर्हित हो गये ||१७|| जिस प्रकार कोई सिंहके उदरसे सुरक्षित निकल आवे उसी प्रकार वे भी सोमकी चपेटसे सुरक्षित निकलकर अलंकारोदयपुर अर्थात् पाताल लंकामें वापस आ गये । उस समय उन्हें ऐसा लगा मानो पुनर्जन्मको ही प्राप्त हुए हों || १८ || इधर जब सोमकी मूर्च्छा दूर हुई तो उसने दिशाओंको शत्रुसे खाली देखा । निदान, शत्रुको विजयसे जिसकी स्तुति
रही थी ऐसा सोम इन्द्रके समीप वापस पहुँचा ||१९|| जिसने शत्रुओं को नष्ट कर दिया था १. सत्वरम् ख. । गत्वरा क. । २ शासतम् म. । ३. प्राप्तकारणम् क. । ४. सोमः । ५. अलङ्काराह्वयं म । ६. मुखम् ख. ।
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