________________
पद्मपुराणे ततः पाणिग्रहश्चके तस्य तासां च तैः पुनः । दिवसानां त्रयं विद्याजनितश्च महोत्सवः ॥१३७॥ गताश्चानुमतास्तेन यथा स्वं निलयानमी । मन्दोदरीगुणाकृष्टः स च यातः स्वयंप्रभम् ॥१३८॥ ततस्तं परया द्युत्या युक्तं दृष्ट्वा सयोषितम् । बान्धवाः परमं हर्ष जग्मुर्विस्तारितेक्षणाः ॥१३९॥ दूरादेव च तं दृष्ट्वा भानुकर्णविभीषणौ । अमिगत्या विनिष्क्रान्तौ सुहृदोऽन्ये च बान्धवाः ॥१४०॥ 'वेष्टितश्च प्रविष्टस्तैः स्वयंप्रभपुरोत्तमम् । रेमे च स्वेच्छया तेऽत्र प्राप्नुवन् सुखमुत्तमम् ॥१४१॥ अथ कुम्भपुरे राजमहोदरसुतां वराम् । सुरूपाक्षीसमुद्भूतां तडिन्मालाभिधानकाम् ॥१४॥ भास्करश्रवणो लेभे सुप्रीतः स तया समम् । चारुविभ्रमकारिण्या निमग्नो रतिसागरे ॥१४३॥ तत्र कुम्भपुरे तस्य केनचित् कृतशब्दने । श्वसुरस्नेहतः कर्णो सततं पेततुर्यतः ॥१४॥ कुम्भकर्ण इति ख्यातिं ततोऽसौ भुवने गतः । धर्मसक्तमतिवीरः कलागुणविशारदः ॥१४५॥ अयं स प्रखलैः ख्यातिमन्यथा गमितो जनैः । मांसासृग्जीवनत्वेन तथा षण्मासनिद्रया ॥१४६॥ आहारोऽस्य शुचिः स्वादुर्यथाकामप्रकल्पितः । सुरभिर्बन्धुयुक्तस्य प्रथमं तर्पितातिथिः ॥१४७॥ संध्यासंवेशनोत्थानमध्यकालप्रवर्तिनी । निद्रास्य शेषकालस्तु धर्मव्यासक्तचेतसः ॥१४८॥ परमार्थावबोधेन वियुक्ताः पापचेतसः । कल्पयन्त्यन्यथा साधून् धिक् तान् दुर्गतिगामिनः ॥१४९॥
अथास्ति दक्षिणश्रेण्यां नाम्ना ज्योतिःप्रभं पुरम् । विशुद्धकमलस्तत्र राजा मयमहासुहृत् ॥१५०॥ कन्याओंने उन्हें छुड़वाकर उनका सत्कार कराया और तुम्हें शूरवीर वर प्राप्त हुआ है इस समाचारसे उन्हें हर्षित भी किया ॥१३६।। तदनन्तर उन्होंने दशानन और उन कन्याओंका विधिपूर्वक पुनः पाणिग्रहण किया। इस उपलक्ष्यमें तीन दिन तक विद्याजनित महोत्सव होते रहे ॥१३७।। तत्पश्चात् ये सब दशाननकी अनुमति लेकर अपने-अपने घर चले गये और दशानन भी मन्दोदरीके गुणोंसे आकृष्ट हुआ स्वयंप्रभनगर चला गया।।१३८॥ तदनन्तर श्रेष्ठ कान्तिसे युक्त दशाननको अनेक स्त्रियों सहित आया देख, बान्धवजन परम हर्षको प्राप्त हुए। हर्षातिरेकसे उनके नेत्र विस्तृत हो गये ।।१३९।। भानुकर्ण और विभीषण तथा अन्य मित्र और इष्टजन दूरसे ही उसे देख अगवानी करनेके लिए नगरसे बाहर निकले ॥१४०॥ उन सबसे घिरा दशानन, स्वयंप्रभनगरमें प्रविष्ट हो मनचाही क्रीड़ा करने लगा और भानुकर्ण-विभीषण आदि बन्धुजन भी उत्तम सुखको प्राप्त हुए ।।१४१।। अथानन्तर कुम्भपुर नगरमें राजा महोदरकी सुरूपाक्षी नामा स्त्रीसे उत्पन्न तडिन्माला नामकी कन्या थी सो भानुकर्णने बड़ी प्रसन्नतासे प्राप्त की। सुन्दर हाव-भाव दिखानेवाली तडिन्मालाके साथ भानुकर्ण रतिरूपी सागरमें निमग्न हो गया ॥१४२-१४३॥ एक बार कुम्भपुर नगरपर किसी प्रबल शत्रुने आक्रमण कर हल्ला मचाया तब श्वसुरके स्नेहसे भानुकणके कान कम्भपूरपर पडे अर्थात वहाँके दःखभरे शब्द इसने सने तबसे संसार में इसका कम्भकर्ण नाम प्रसिद्ध हुआ। इसकी बुद्धि सदा धर्ममें आसक्त रहती थी, यह शूरवीर था तथा कलाओंमें निपुण था ॥१४४-१४५।। दुष्टजनोंने इसके विषयमें अन्यथा ही निरूपण किया है। वे कहते हैं कि यह मांस और खूनका भोजन कर जीवित रहता था तथा छह माहकी निद्रा लेता था सो इसका आहार तो इच्छानुसार परम पवित्र मधुर और सुगन्धित होता था। प्रथम ही अतिथियोंको सन्तुष्ट कर बन्धुजनोंके साथ आहार करता था ॥१४६-१४७॥ सन्ध्याकाल शयन करने का और प्रातःकाल उठनेका समय है सो भानुकर्ण इसके बीचमें ही निद्रा लेता था। इसका अन्य समय धार्मिक कार्योंमें ही व्यतीत होता था ।।१४८।। जो परमार्थज्ञानसे रहित पापी मनुष्य, सत्पुरुषोंका अन्यथा वर्णन करते हैं वे दुर्गतिमें जानेवाले हैं । ऐसे लोगोंको धिक्कार है ॥१४९।।
___ अथानन्तर दक्षिणश्रेणी में ज्योतिःप्रभ नामका नगर है। वहाँ विशुद्धकमल राजा राज्य १. वेष्टिताश्च प्रविष्टास्ते म.। २. अथ स म.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org,