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अष्टमं पर्व आवाग्छता रणं कर्तुं महासाधनसंयुतौ । दूषितावपमानेन गङ्गाधरमहीधरौ ॥३७४॥ ततः शक्रधनुः साकं सुचापाख्येन सूनुना । हरिषेणं जगादैवं करुणासक्तचेतनः ॥३७५॥ तिष्ठ त्वमिह जामातः 'संख्यं कर्तुं व्रजाम्यहम् । त्वन्निमित्तं रिपू क्रुद्धावुद्धतौ दुःखचारिणौ ॥३७६॥ स्मित्वा ततो जगादासौ परकार्येषु यो रतः । कार्ये तस्य कथं स्वस्मिन्नौदासीन्यं भविष्यति ॥३७७॥ कुरु पूज्य प्रसादं मे यच्छ युद्धाय शासनम् । भृत्यं मत्सदृशं प्राप्य स्वयं किमिति युध्यसे ॥३७८॥ ततोऽमङ्गलभीतेन वाग्छताप्यनिवारितः । श्वसुरेण कृतासङ्गमश्वैः पवनगामिभिः ॥३७९॥ अस्त्रैर्नानाविधैः पूर्णशूरसारथिनेतृकम् । वेष्टितं योधचक्रेण हरिषेणो रथं ययौ ॥३८०॥ तस्य चानुपदं जग्मुरश्वैर्नागैश्च खेचराः । कृत्वा कलकलं तुङ्गं शत्रुमानसदुःसहम् ॥३८१॥ ततो महति संजाते संयुगे शूरधारिते । मग्नं शक्रधनुःसैन्यं दृष्टा वाप्रेय उत्थितः ॥३८२॥ ततो यया दिशा तस्य प्रावर्तत रथोत्तमः । तस्यां नाश्वो न मातङ्गो न मनुष्यो रथो न च ॥३८३॥ शरैस्तेन समं युक्तररातिबलमाहतम् । जगाम क्वाप्यनालोक्यं पृष्ठं स्खलितजूतिकम् ॥३८४॥ पृथुवेपथवः केचिदिदमूचुर्भयार्दिताः। कृतं गङ्गाधरेणेदं भूधरेण च दुर्मतम् ॥३८५॥ अयं कोऽपि रणे भाति सूर्यवत्पुरुषोत्तमः । करानिव शरान्मुञ्चन् सर्वाशासु समं बहून् ॥३८६।।
ध्वंस्यमानं ततः सैन्यं दृष्ट्वा तेन महात्मना । गतौ क्वापि भयग्रस्तौ गङ्गाधरमहीधरौ ॥३८७॥ कन्याके मामाके लड़के गंगाधर और महीधर बहुत.ही कुपित हुए। कुपित ही नहीं हुए अपमानसे प्रेरित हो बड़ी भारी सेना लेकर युद्ध करनेको भी इच्छा करने लगे ॥३७३-३७४॥ तदनन्तर करुणामें आसक्त है चित्त जिसका ऐसे राजा शक्रधनुने अपने सुचाप नामक पुत्रके साथ हरिषेणसे इस प्रकार निवेदन किया कि हे जामातः! तुम यहीं ठहरो, मैं युद्ध करनेके लिए जाता हूँ। तुम्हारे निमित्तसे दो उत्कट शत्रु कुपित होकर दुःखका अनुभव कर रहे हैं ॥३७५-३७६।। तब हंसकर हरिषेणने कहा कि जो परकीय कार्यों में सदा तत्पर रहता है उसके अपने ही कार्यमें उदासीनता केसे हो सकती है ? ॥३७७॥ हे पूज्य ! प्रसन्नता करो और मेरे लिए युद्धका आदेश दो। मेरे जैसा भृत्य पाकर आप इस प्रकार स्वयं क्यों युद्ध करते हो ? ॥३७८॥ तदनन्तर अमंगलसे भयभीत श्वसुरने चाहते हुए भी उसे नहीं रोका । फलस्वरूप जिसमें हवाके समान शीघ्रगामी घोड़े जुते थे, जो नाना प्रकारके शस्त्रोंसे पूर्ण था, जिसका सारथि शूरवीर था और जो योद्धाओंके समूहसे घिरा था ऐसे रथको हरिषेण प्राप्त हुआ॥३७९-३८०॥ उसके पीछे विद्याधर लोग शत्रुके मनको असहनीय बहुत भारी कोलाहल कर घोड़ों और हाथियोंपर सवार होकर जा रहे थे॥३८१।। तदनन्तर शूरवीर मनुष्य जिसकी व्यवस्था बनाये हुए थे ऐसा महायुद्ध प्रवृत्त हुआ सो कुछ हो समय बाद शक्रधनुकी सेनाको पराजित देख हरिषेण युद्धके लिए उठा ॥३८२।। तदनन्तर जिस दिशासे उसका उत्तम रथ निकल जाता था उस दिशामें न घोड़ा बचता था, न हाथी दिखाई देता था, न मनुष्य शेष रहता था और न रथ ही बाकी बचता था ।।३८३।। उसने एक साथ डोरीपर चढाये हए बाणोंसे शत्रकी सेनाको इस प्रकार मारा कि वह पीछे बिना देखे ही एकदम सरपट कहींपर भाग खड़ी हुई ॥३८४|| जिनके शरीरमें बहुत भारी कँपकँपी छूट रही थी ऐसे भयसे पीड़ित कितने ही योद्धा कह रहे थे कि गंगाधर और महीधरने यह बड़ा अनिष्ट कार्य किया है ॥३८५।। यह कोई अद्भत पुरुष युद्ध में सूर्यकी भांति सुशोभित हो रहा है । जिस प्रकार सूर्य समस्त दिशाओंमें किरणें छोड़ता है उसी प्रकार यह भी समस्त दिशाओंमें बहुत बाण छोड़ रहा है ॥३८६।। तदनन्तर अपनी सेनाको उस महात्माके द्वारा नष्ट होती देख भयसे ग्रस्त हुए गंगाधर और महीधर १. युद्धम्। २. रिपुक्रुद्धो दुर्वृत्ती दुःखचारणो म. । ३. स्वामिन् म. । ४. वाञ्छितोऽप्यनि -ख. । ५. सूरि -म. । ६. दृष्ट्वा म. । ७. तस्य म. । ८. महीधरेण ।
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