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पपपुराणे विज्ञेयौ बालिसुग्रीवौ किष्किन्धकुलभूषणौ । तयोस्तु भूषणीभूता विनयप्रमुखा गुणाः ॥११॥ सुग्रीवानन्तरा कन्या 'रूपेणाप्रतिमा भुवि । श्रीप्रभेति समुद्भूता क्रमशः श्रीरिव स्वयम् ॥१२॥ किष्कुप्रमोदनगरे हरिकान्ताख्ययोषिति । क्रमादृक्षरजाः पुत्रौ नलनीलावजीजनत् ॥१३॥ वितीर्णस्वजनानन्दौ रिपुशङ्कावितारिणौ । उदात्तगुणसंमारौ भूतौ तौ किष्कुमण्डनौ ॥१४॥ यौवनश्रियमालोक्य सुतस्य स्थितिपालिनीम् । विषमिश्रान्नसदृशान्विदित्वा विषयान् बुधः ॥१५॥ वितीर्य बालये राज्यं धर्मपालनकारणम् । सुग्रीवाय च सच्चेष्टो युवराजपदं कृती ॥१६॥ अवगम्य परं स्वं च जन साम्येन सजनः । चतुर्गति जगज्ज्ञात्वा महादुःखनिपीडितम् ॥१७॥ मुनेः पिहितमोहस्य शिष्यः सूर्यरजा अभूत् । यथोक्तचरणाधारः शरीरेऽपि गतस्पृहः ॥१८॥ नभोवदमलस्वान्तः सङ्गमुक्तः समीरवत् । विजहार स निष्क्रोधो धरण्यां मुक्तिलालसः ॥१९॥ अथ बालेधंवा नाम्ना साध्वी पाणिगृहीत्यभत् । अङ्गनानां शतस्याप प्राधान्यं या गुणोदयात् ॥२०॥ तया सह महैश्वर्य सोऽन्वभूचारुविभ्रमः । श्रीवानराङ्कमुकुटः पूजिताज्ञः खगाधिपैः ॥२१॥ अत्रान्तरे छलान्वेषी मेघप्रभशरीरजः । हर्तुमिच्छति तां कन्या लकेशस्य सहोदराम् ॥२२॥ यदैव तेन सा दृष्टा सर्वगानमनोहरा । तदा प्रभृत्ययं देहमधत्तानङ्गपीडितम् ॥२३॥
नीतिज्ञ एवं मनोहर रूपसे युक्त था ॥१०॥ बाली और सुग्रीव-दोनों ही भाई किष्किन्ध नगरके कुलभूषण थे और विनय आदि गुण उन दोनोंके आभूषण थे ॥११॥ सुग्रीवके बाद श्रीप्रभा नामकी कन्या उत्पन्न हुई जो पृथ्वीमें रूपसे अनुपम थी तथा साक्षात् श्री अर्थात् लक्ष्मीके समान जान पड़ती थी ॥१२॥
सूर्यरजका छोटा भाई ऋक्षरज किष्कुप्रमोदं नामक नगरमें रहता था। सो उसने वहां हरिकान्ता नामक रानीमें क्रमसे नल और नील नामक दो पुत्र उत्पन्न किये ।।१३।। ये दोनों ही पूत्र आत्मीय जनोंको आनन्द प्रदान करते थे, शत्रुओंको भय उत्पन्न करते थे, उत्कृष्ट गुणोंसे युक्त थे और किष्कुप्रमोद नगरके मानो आभूषण ही थे ॥१४॥ विद्वान्, कुशल एवं समीचीन चेष्टाओंको धारण करनेवाले सूर्यरजने जब देखा कि पुत्रको योवन लक्ष्मी कुल-मर्यादाका पालन करनेमें समर्थ हो गयी है, तब उसने पंचेन्द्रियोंके विषयोंको विषमिश्रित अन्नके समान त्याज्य, समझकर धर्म रक्षाका कारणभूत राज्य बालीके लिए दे दिया और सुग्रीवको युवराज बना दिया ॥१५-१६।। सत्पुरुष सूर्यरज स्वजन और परिजनको समान जान तथा चतुर्गति रूप संसारको महादुःखोंसे पीड़ित अनुभव कर पिहितमोह नामक मुनिराजका शिष्य हो गया। जिनेन्द्र भगवान्ने मुनियोंका जैसा चारित्र बतलाया है सूर्यरज वैसे ही चारित्रका आधार था। वह शरीरमें भी निःस्पृह था। उसका हृदय आकाशके समान निर्मल था, वह वायुके समान निःसंग था, क्रोधरहित था और केवल मुक्तिकी ही लालसा रखता हुआ पृथिवीमें विहार करता था ॥१७-१९।।।
अथानन्तर बालीकी ध्रुवा नामकी शीलवती स्त्री थी। वह ध्रुवा अपने गुणोंके अभ्युदयसे उसकी अन्य सौ स्त्रियोंमें प्रधानताको प्राप्त थी ॥२०॥ जिसके मुकुटमें वानरका चिह्न था, तथा विद्याधर राजा जिसकी आज्ञा बड़े सम्मानके साथ मानते थे ऐसा सुन्दर विभ्रमको धारण करने वाला बाली उस ध्रुवा रानीके साथ महान् ऐश्वर्यका अनुभव करता था ॥ २१ ॥ इसी बीचमें मेघप्रभका पुत्र खरदूषण जो निरन्तर छलका अन्वेषण करता था दशाननकी बहन चन्द्रनखाका अपहरण करना चाहता था ।।२२।। जिसका सर्व शरीर सुन्दर था ऐसी चन्द्रनखाको जिस समयसे खरदूषणने देखा था उसी समयसे उसका शरीर कामसे पीड़ित हो गया था ।।२३।।
१. रूपेण प्रतिमा म. २. समतः क. । ३. योषिता म.। ४. चन्द्रनखाम् ।
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