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पद्मपुराणे
सूक्ष्मासु मद्वियुक्तासु धर्मानुगुणभूमिषु । मुनिभिर्विमलाचारैः सेवितासु महात्मभिः ॥ ९३ ॥ विहरन् सर्वजीवानां दयमानः पिता यथा । बाह्येन तर्पसान्तःस्थं वर्द्धयन् सततं तपः ॥९४॥ आवासतां महर्द्धानां परिप्राप्तः प्रशान्तधीः । तपः श्रिया परिष्वक्तः परया कान्तदर्शनः ॥ ९५ ॥ उच्चैरुच्चैर्गुणस्थान सोपानारोहणोद्यतः । भिन्नाध्यात्माखिल ग्रन्थग्रन्थिर्ग्रन्थविवर्जितः ॥९६॥ श्रुतेन सकलं पश्यन् कृत्याकृत्यं महागुणः । महासंवरसंपन्नः शातयन् कर्मसंततिम् ॥९७॥ प्राणधारणमात्रार्थं भुञ्जानः सूत्रदेशितम् । धर्मार्थं धारयन् प्राणान् धर्मं मोक्षार्थमर्जयन् ॥ ९८ ॥ आनन्दं भव्यलोकस्य कुर्वन्नुत्तमविक्रमः । चरितेनोपमानत्वं जगामासौ तपस्विनाम् ॥९९॥ दशग्रीवाय सुग्रीवो वितीर्य श्रीप्रमां सुखी । चकारानुमतस्तेन राज्यमागतमन्वयात् ॥१००॥ विद्याधरकुमार्यो या द्यावाभूमौ मनोहराः। दशाननः समस्तास्ताः परिणिन्ये पराक्रमात् ॥१०१॥ नित्यालोकेऽथ नगरे नित्यालोकस्य देहजाम् । श्रीदेवी लब्धजन्मानं ' नाम्ना रत्नावलीं सुताम् ॥ १०२ ॥ उपयम्य पुरीं यातो निजां परमसंमदः । नभसा मुकुटन्यस्तरत्नरश्मिविराजिना ॥ १०३ ॥ सहसा पुष्पकं स्तम्भमारैमानसचञ्चलम् । मेरोरिव तटं प्राप्य सुमहद्वायुमण्डलम् ||१०४॥ तस्योच्छिन्नगतेः शब्दे ँ भग्ने घण्टादिजन्मनि । वैलक्ष्यादिव संजातं मौनं पिण्डिततेजसः ॥ १०५ ॥
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प्रवृत्तिमालोक्य विमानं कैकसीसुतः । कः कोऽत्र भो इति क्षिप्रं बभाण क्रोधदीपितः ॥ १०६ ॥ मारीचस्तत आक्षौ सर्ववृत्तान्तकोविदः । शृणु देवैष कैलासे स्थितः प्रतिमया मुनिः ॥ १०७ ॥
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वह जीवोंपर पिता के समान दया करता था । बाह्य तपसे अन्तरंग तपको निरन्तर बढ़ाता रहता था ||९३-९४ || बड़ी-बड़ी ऋद्धियोंकी आवासताको प्राप्त था अर्थात् उसमें बड़ी-बड़ी ऋद्धियाँ निवास करती थीं, प्रशान्त चित्त था, उत्कृष्ट तपरूपी लक्ष्मीसे आलिंगित था, अत्यन्त सुन्दर था ||१५|| ऊँचे-ऊँचे गुणस्थानरूपी सीढ़ियोंके चढ़ने में उद्यत रहता था, उसने अपने हृदय में समस्त ग्रन्थोंकी ग्रन्थियाँ अर्थात् कठिन स्थल खोल रखे थे, समस्त प्रकार के परिग्रहसे रहित था ||२६|| वह शास्त्रके द्वारा समस्त कृत्य और अकृत्यको समझता था । महागुणवान् था, महासंवरसे युक्त था, और सन्ततिको नष्ट करनेवाला था || ९७|| वह प्राणोंकी रक्षाके लिए ही आगमोक्त विधिसे आहार ग्रहण करता था, धर्मके लिए ही प्राण धारण करता था और मोक्षके लिए ही धर्मका अर्जन करता था || ९८ || वह भव्य जीवोंको सदा आनन्द उत्पन्न करता था, उत्कृष्ट पराक्रमका धारी था और अपने चारित्रसे तपस्वीजनोंका उपमान हो रहा था || १९||
इधर सुग्रीव दशाननके लिए श्रीप्रभा बहन देकर उसकी अनुमतिसे सुखपूर्वक वंशपरम्परागत राज्यका पालन करने लगा || १०० ॥ पृथ्वीपर विद्याधरोंको जो सुन्दर कुमारियाँ थीं दशाननने अपने पराक्रमसे उन सबके साथ विवाह किया || १०१ ॥ अथानन्तर एक बार दशानन नित्यालोक नगर में राजा नित्यालोककी श्रीदेवी से समुत्पन्न रत्नावली नामकी पुत्रीको विवाह कर बड़े हर्ष के साथ आकाशमार्गंसे अपनी नगरीकी ओर आ रहा था । उस समय उसके मुकुटमें जो रत्न लगे थे उनकी किरणोंसे आकाश सुशोभित हो रहा था || १०२ - १०३ || जिस प्रकार बड़ा भारी वायुमण्डल मेरुके तटको पाकर सहसा रुक जाता है उसी प्रकार मनके समान चंचल पुष्पक विमान सहसा रुक गया ||१०४ || जब पुष्पक विमानकी गति रुक गयी और घण्टा आदिसे उत्पन्न होनेवाला शब्द भंग हो गया तब ऐसा जान पड़ता था मानो तेजहीन होनेसे लज्जाके कारण उसने मौन ही ले रखा था ||१०५|| विमानको रुका देख दशाननने क्रोधसे दमकते हुए कहा कि अरे यहाँ कौन है ? कौन है ? ||१०६|| तब सर्वं वृत्तान्तको जाननेवाले मासेचने कहा कि हे देव ! सुनो, यहाँ कैलास पर्वत पर १. सूक्ष्मप्राणिरहितासु । २. तपसान्तस्थं म । ३. परिक्रमात् म. । ४. रम्भावलीं म । ५. विराजिताम् म. । ६. जगाम । ७. शब्दभग्ने ।
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