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पद्मपुराणे महासाधनसंपन्ना हेपयन्तः सुरश्रियम् । अनुजग्मुरतिप्रीता रावणं पृथुकीर्तयः ॥५१॥ ततो विन्ध्यान्तिके तस्य जगामास्तं दिवाकरः । बैलक्ष्यादिव निच्छायो जितो रावणतेजसा ॥५२॥ 'उत्तमाङ्गे च विन्ध्यस्य तेन सैन्यं निवेशितम् । विद्याबलसमुद्भुतै नाकृतसमाश्रयम् ॥५३॥ प्रदीप इव चानीतः क्षपया तस्य भीतया । करदूरीकृतध्वान्तपटलो रोहिणीपतिः ॥५४॥ तारागणशिरःपुष्पा शशाङ्कवदना निशा । प्राप्ता वराङ्गनेवैतं विमलाम्बरधारिणी ॥५५॥ संकथाभिर्विचित्राभिर्व्यापारैश्च तथोचितः । सुखेन रजनी नीता निद्या च नभश्चरैः ॥५६॥ ततः प्रभाततूर्यण मङ्गलैश्च प्रबोधितः । चकार रावणः कर्म सकलं तनुगोचरम् ॥५७॥ भ्रान्त्वेव भुवनं सर्वमदृष्ट्वान्यं समाश्रयम् । पुनः शरणमायातो रावणं पद्मबान्धवः ॥५॥ ततो नानाशकुन्तौधः कुर्वद्भिर्मधुरस्वरम् । संभाषणमिव भ्रष्टमर्यादं कुर्वतीमयम् ॥५५॥ ददर्श नर्मदा फेनपटलैः सस्मितामिव । शुद्धस्फटिकसंकाशसलिला द्विपभूषिताम् ॥६॥ तरङ्गभ्रूविलासाढ्यामावर्तोत्तमनामिकाम् । विस्फुरच्छफरीनेत्रां पुलिनोरुकलत्रिकाम् ॥६१॥ नानापुष्पसमाकीणों विमलोदकवाससम् । वराङ्गनामिवालोक्य महाप्रीतिसुपागतः ॥६२॥ उग्रनक्रकुलाक्रान्तां गम्भीरां वेगिनी क्वचित् । क्वचिच्च प्रस्थितां मन्दं क्वचित्कुण्डलगामिनीम् ॥६३॥ नानाचेष्टितसंपूर्णां कौतुकव्याप्तमानसः । अवतीर्णः स तां भीमा रमणीयां च सादरः ॥६॥
पीछे चल रहे थे। ये सभी लोग बडी-बडी सेनाओंसे सहित थे. इन्द्रकी लक्ष्मीको लजाते थे. अत्यन्त प्रीतिसे युक्त थे और विशाल कीतिके धारक थे ॥४९-५१॥
तदनन्तर जब रावण विन्ध्याचलके समीप पहुंचा तब सूर्य अस्त हो गया सो रावणके तेजसे पराजित होनेके कारण लज्जासे ही मानो प्रभाहीन हो गया था ॥५२॥ सूर्यास्त होते ही उसने विन्ध्याचलके शिखरपर सेना ठहरा दी। वहाँ विद्याके बलसे सेनाको नाना प्रकारके आश्रय प्राप्त हुए थे ॥५३॥ किरणोंके द्वारा अन्धकारके समूहको दूर करनेवाला चन्द्रमा उदित हुआ सो मानो रावणसे डरी हुई रात्रिने उत्तम दीपक ही लाकर उपस्थित किया था ।।५४॥ तारागण ही जिसके सिरके पूष्प थे, चन्द्रमा ही जिसका मुख था, और जो निर्मल अम्बर (आकाश) रूपी अम्बर (वस्त्र) धारण कर रही थी ऐसी उत्तम नायिकाके समान रात्रि रावणके समीप आयी ॥५५॥ विद्याधरोंने नाना प्रकारकी कथाओंसे, योग्य व्यापारोंसे तथा अनुकूल निद्रासे वह रात्रि व्यतीत की ॥५६।। तदनन्तर प्रातःकालकी तुरही और वन्दीजनोंके मांगलिक शब्दोसे जागकर रावणने शरीर सम्बन्धी समस्त कार्य किये ॥५७।। सूर्योदय हुआ सो मानो सूर्य समस्त जगह भ्रमण कर अन्य आश्रय न देख पुनः रावणकी शरण में आया ।।५८॥ तदनन्तर रावणने नर्मदा नदी देखी। नर्मदा मधुर शब्द करनेवाले नाना पक्षियोंके समूहके साथ मानो अत्यधिक वार्तालाप ही कर रही थी ॥५९।। फेनके समूहसे ऐसी जान पड़ती थी मानो हँस ही रही हो। उसका जल शुद्ध स्फटिकके समान निर्मल था और वह हाथियोंसे सुशोभित थी ॥६०॥ वह नर्मदा तरंगरूपी भ्रकुटीके विलाससे युक्त थी, आवर्तरूपी नाभिसे सहित थी, तैरती हुई मछलियाँ ही उसके नेत्र थे, दोनों विशाल तट हो स्थूल नितम्ब थे, नाना फूलोंसे वह व्याप्त थी और निर्मल जल ही उसका वस्त्र था। इस प्रकार किसी उत्तम नायिकाके समान नर्मदाको देख रावण महाप्रीतिको प्राप्त हुआ ॥६१-६२॥ वह नर्मदा कहीं तो उग्र मगरमच्छोंके समूहसे व्याप्त होनेके कारण गम्भीर थी, कहीं वेगसे बहती थी, कहीं मन्द गतिसे बहती थी और कहीं कुण्डलकी तरह टेढ़ी-मेढ़ी चालसे बहती थी ॥६३।। नाना चेष्टाओंसे भरी हुई थी, तथा भयंकर होनेपर भी रमणीय थी। जिसका चित्त कौतुकसे व्याप्त था ऐसे रावणने बड़े आदरके साथ उस नर्मदा नदीमें प्रवेश किया ॥६४॥ १. -उत्तमाङ्गेन म. । २. -मिवाभ्रष्टमर्यादां कुर्वती ममूम् म., ब. ।
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