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दशमं पर्व
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ततो दशाननः क्षिप्रं गृहीत्वा प्रतियातनाम् । क्रुद्धो जगाद किन्स्वेतदिति विज्ञायतामरम् ॥९२॥ ततोऽनुसृत्य वेगेन नरैः प्रतिनिवृत्य च । निवेदितमिदं नाथ कोऽप्ययं पुरुषो महान् ॥९३॥ मध्ये ललामनारीणां ललामपरमोदयः । दूरस्थेन नृलोकेन वेष्टितः खड्गधारिणा ॥९४ || नानाकाराणि यन्त्राणि बृहन्ति सुबहूनि च । विद्यन्ते तस्य नूनं तैः कृतमेतद्वि चेष्टितम् ॥९५|| व्यवस्थामात्रकं तस्य पुरुषा इति नो मतिः । अवष्टम्भस्तु यस्तस्य स एवान्यस्य दुःसहः ||९६ ॥ वार्तया श्रूयते कोऽपि शक्रः स्वर्गे तथा गिरौ । अयं तु वीक्षितोऽस्माभिः शुनासीरः समक्षतः ॥९७॥ श्रुत्वा संकुचितश्च रवं मुरजसंभवम् । वीणावंशादिभिर्युक्तं जयशब्दविमिश्रितम् ||१८|| गजवाजिनराणां च ध्वानमाज्ञपयन्नृपान् । त्वरितं गृह्यतामेष दुरात्मेति दशाननः ||९९|| दवा चाज्ञां पुनश्चक्रे पूजां रोधसि सत्तमाम् । रत्नकाञ्चननिर्माणैः पुष्पैर्जिन वराकृतौ ॥१००॥ शेषामिव दशास्याज्ञां कृत्वा शिरसि संभ्रमात्। अभ्यमित्रं ससन्नद्धाः प्रसतुयमगाधिपाः ॥ १०१ ॥ दृष्ट्वा परबलं प्राप्तं सहस्रकिरणः क्षणात् । क्षुब्धो दत्वाभयं स्त्रीणां निर्जगाम जलाशयात् ॥१०२॥ ततः कलकलं श्रुत्वा विदित्वा च नरौघतः । संनह्य निर्ययुर्वीरा माहिष्मत्याः ससंभ्रमम् ॥१०३॥ गजवाजिसमारूढाः पादातेन समावृताः । रथारूढाश्च सामन्ता विविधायुधधारिणः ॥ १०४॥ सहस्रकिरणं प्राप्ता नितान्तमनुरागिणः । ऋतवः क्रमनिर्मुक्ताः संमेदमिव पर्वतम् ॥१०५॥ आपतन्तीं ततो दृष्ट्वा विद्याधरवरूथिनीम् । सहस्ररश्मिसामन्तास्त्यक्त्वा जीवितलोभिताम् ॥१०६॥
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बूलोंसे युक्त, मलिन एवं वेगशाली जलके पूर से नष्ट हो गयी ॥ ९१ ॥ तब रावणने शीघ्र ही प्रतिमा ऊपर उठाकर कुपित हो लोगोंसे कहा कि मालूम करो क्या बात है ? || ९२|| तदनन्तर लोगोंने are जाकर और वापस लौटकर निवेदन किया कि हे नाथ ! आभूषणोंसे परम अभ्युदयको प्रकट करनेवाला कोई मनुष्य सुन्दर स्त्रियोंके बीच बैठा है । तलवारको धारण करनेवाले मनुष्य दूर खड़े रहकर उसे घेरे हुए हैं । नाना प्रकार के बड़े-बड़े यन्त्र उसके पास विद्यमान हैं। निश्चय ही यह कार्य उन सब यन्त्रों का किया है || ९३-९५ || हमारा ध्यान है कि उसके पास जो पुरुष हैं वे तो व्यवस्था मात्र के लिए हैं यथार्थ में उसका जो बल है वही दूसरोंके लिए दुःखसे सहन करने योग्य है ॥९६॥ लोक-कथा से सुना जाता है कि स्वर्ग में अथवा सुमेरु पर्वतपर इन्द्र नामका कोई व्यक्ति रहता है पर हमने तो यह साक्षात् ही इन्द्र देखा है || ९७|| उसी समय रावणने वीणा, बाँसुरी आदिसे युक्त तथा जय-जय शब्दसे निश्चित मृदंगका शब्द सुना। साथ ही हाथी, घोड़े और मनुष्योंका शब्द भी उसने सुना । सुनते ही उसकी भौंह चढ़ गयी । उसी समय उसने राजाओंको आज्ञा दी कि इस दुष्टको शीघ्र ही पकड़ा जाये ॥ ९८-९९ || आज्ञा देकर रावण फिर नदीके किनारे रत्न तथा सुवर्णं निर्मित पुष्पोंसे जिनप्रतिमाकी उत्तम पूजा करने लगा || १०० || विद्याधर राजाओंने रावणकी आज्ञा शेषाक्षतके समान मस्तकपर धारण की और तैयार हो वे शीघ्र ही शत्रुके सम्मुख दौड़ पड़े || १०१ || तदनन्तर शत्रुदलको आया देख सहस्ररश्मि क्षण-भर में क्षुभित हो गया और स्त्रियों को अभय देकर शीघ्र ही जलाशयसे बाहर निकला ||१०२|| तत्पश्चात् कल-कल सुनकर और जनसमूहसे सब समाचार जानकर माहिष्मतीके वीर शीघ्र ही तैयार हो बाहर निकल पड़े || १०३ || जिस प्रकार वसन्त आदि ऋतुएँ सम्मेदाचल के पास एक साथ आ पहुँचती हैं। उसी प्रकार नाना तरहके शस्त्रोंको धारण करनेवाले बहुत भारी अनुरागसे भरे सामन्त सहस्ररश्मि पास एक साथ आ पहुँचे । वे सामन्त हाथियों, घोड़ों और रथोंपर सवार थे तथा पैदल चलनेवाले सैनिकोंसे युक्त थे ||१०४ - १०५ ॥
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१. प्रतिमां । २. अस्माकम् । ३. बलम् । ४. शक्तः म । ५. प्रत्यक्षम् । ६. ध्वनिमाज्ञापयन् म. । ७. पदातीनां समूहस्तेन ।
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