________________
दशमं पर्व धानुष्केण रथस्थेन पश्यता तृणवजगत् । योजनं यावदध्वानं शरौधैरपसारितम् ॥१२॥ ततोऽभिमुखमायातं तमालोक्य यमाईनः । आरुह्य 'त्रिजगद्भूषनामानं मत्तवारणम् ॥१२२॥ परैरालोकितो भीतैर्विमुक्तशरसंहतिः । सहस्रकिरणं चक्रे विरथं दुःसहद्युतिः ॥१२३॥ ततः सहस्रकिरणः समारुह्य द्विपोत्तमम् । अभीयाय पुनः ऋद्धस्तरसा राक्षसाधिपम् ॥१२॥ सहस्ररश्मिना मुक्ता बाणा निर्मिद्य कङ्कटम् । अङ्गानि दशवक्त्रस्य बिमिदुर्निशिताननाः ॥१२५॥ रत्नश्रवःसुतेनास्तान्बाणानाकृष्य देहतः । सहस्रकिरणो हासं कृत्वेत्यवददुन्नतम् ॥१२६॥ अहो रावण धानुष्को महानसि कुतस्तव । उपदेशोऽयमायातो गुरोः परमकौशलात् ॥१२७॥ वत्स तावद्धनुर्वेदमधीष्व कुरु च श्रमम् । ततो मया समं युद्ध करिष्यसि नयोज्झितः ॥१२८॥ ततः परुषवाक्येन प्राप्तः संरम्भमुत्तमम् । बिभेद यक्षमर्दस्तं कुन्तेनालिकपट्टके ॥१२९॥ गलदुधिरधारोऽसौ घूर्णमाननिरीक्षणः । मोहं गत्वा समाश्वस्तो यावद् गृह्णाति सायकम् ॥१३०॥ तावदुरपत्य वेगेन तमष्टापदकम्पनः । अनुज्झितमहाधैय जीवग्राहं गृहीतवान् ॥१३॥ नीतः स्वनिलयं बद्ध्वा खगैर्दृष्टः सविस्मयैः । यदि नामोत्पतेत् सोऽपि केन गृह्येत जन्तुना ॥१३२॥ सहस्ररश्मिवृत्तान्तादिव नीतिमुपागतः । सहस्ररश्मिरैदस्तं संध्याप्राकारवेष्टितः ॥१३३॥ दशवक्त्रविमुक्तेन कोपेनेव च भूरिणा । तमसा पिहितो लोकः सदसत्समताकृता ॥१३॥
• जगत्को तृणके समान तुच्छ देखनेवाले, रथपर बैठे धनुषधारी इस किसी राजाने बाणोंके समूहसे तुम्हारी सेनाको एक योजन पीछे खदेड़ दिया है ॥१२०-१२१।। तदनन्तर सहस्ररश्मिको सम्मुख आता देख दशानन त्रिलोकमण्डन नामक हाथीपर सवार हो चला। शत्रु जिसे भयभीत होकर देख रहे थे तथा जिसका तेज अत्यन्त दुःसह था ऐसे रावणने बाणोंका समूह छोड़कर सहस्ररश्मिको रथरहित कर दिया ॥१२२-१२३।। तब सहस्ररश्मि उत्तम हाथीपर सवार हो क्रुद्ध होता हुआ वेगसे पुनः रावणके सम्मुख आया ॥१२४।। इधर सहस्ररश्मिके द्वारा छोड़े हुए पैने बाण कवचको भेदकर रावणके अंगोंको विदीर्ण करने लगे ॥१२५॥ उधर रावणने सहस्ररश्मिके प्रति जो बाण छोड़े थे उन्हें वह शरीरसे खींचकर हँसता हुआ जोरसे बोला ॥१२६॥ कि अहो रावण! तुम तो बड़े धनुर्धारी मालूम होते हो। यह उपदेश तुम्हें किस कुशल गुरुसे प्राप्त हुआ है ? ॥१२७॥ अरे छोकड़े ! पहले धनुर्वेद पढ़ और अभ्यास कर, फिर मेरे साथ युद्ध करना। तू नीतिसे रहित जान पड़ता है ।।१२८।। तदनन्तर उक्त कठोर वचनोंसे बहुत भारी क्रोधको प्राप्त हुए रावणने एक भाला सहस्ररश्मिके ललाटपर मारा ॥१२९|| जिससे रुधिरकी धारा बहने लगी तथा आँखें घूमने लगीं। मूछित हो पुनः सावधान होकर जबतक वह बाण ग्रहण करता है तबतक रावणने वेगसे उछलकर उस धैर्यशालीको जीवित ही पकड़ लिया ॥१३०-१३१॥ रावण उसे बांधकर अपने डेरेपर ले गया। विद्याधर उसे बड़े आश्चर्यसे देख रहे थे। वे सोच रहे थे कि यदि यह किसी तरह उछलकर छूटता है तो फिर इसे कौन पकड़ सकेगा? ॥१३२॥
तदनन्तर सन्ध्यारूपी प्राकारसे वेष्टित होता हुआ सूर्य अस्त हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो सहस्ररश्मिके इस वृत्तान्तसे उसने कुछ नीतिको प्राप्त किया था अर्थात् शिक्षा ग्रहण की थी॥१३३॥ अच्छे और बुरेको समान करनेवाले अन्धकारसे लोक आच्छादित हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो रावणके द्वारा छोड़े हुए बहुत भारी क्रोधसे ही आच्छादित हुआ हो ॥१३४॥ १. रावणः । २. त्रिलोकमण्डननामधेयम् । ३. श्रुतिः ख. । ४. नयोज्झतः म. । ५. भालतटे। ६. समास्वस्थो म.। ७. कैलासकम्पनो रावणः । ८. महो धैर्य म., ब., क.। ९. सूर्यः, सहस्ररश्मि +ऐत् + अस्तम् । ऐत् % अगच्छत् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org