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वशमं पर्व
२२७
अमराणां सहस्रेण प्रत्येकं कृतपालनैः । रत्नैरनुगतो नानागुणसंघातधारिमिः ॥४०॥ चन्द्ररश्मिचयाकारैश्चामरैरुपवीजितः । समुच्छ्रितसितच्छत्रश्चारुरूपमहाभुजः ॥४१॥ पुष्पकाग्रं समारूढो मन्दरस्थरविद्युतिः । तिग्मांशुमालिनो मार्ग छादयन् यानसंपदा ॥४२॥ इन्द्रध्वंसनमाधाय मानसे पुरुविक्रमः । प्रयाणकैरभिप्रेतैः प्रयाति स्म दशाननः ॥४३॥ नानारत्नकृतच्छायं चामरोर्मिसमाकुलम् । तद्दण्डमीनसंघातं छत्रावर्तशताचितम् ॥४४॥ वाजिमातङ्गपादातग्रहसंघातमीषणम् । उल्लसच्छस्नकल्लोलमकरोत् स खमर्णवम् ॥४५॥ तुङ्गवर्हिणपिच्छौघशिरोभिर्मासुरैर्ध्वजैः। वज्रेरिव क्वचिद् व्याप्तं सुत्रामोपायनैनमः ॥४६॥ नानारत्नकृतोद्योतैस्तुङ्गशृङ्गविराजितैः । संचरत्सुरलोकाभं विमाननिवहैः क्वचित् ॥४७॥ पृथ्व्या किं मगधाधीश गिरात्र परिकीर्णया। मन्ये तत्सैन्यमालोक्य बिभुयुस्त्रिदशा अपि ॥४८॥ इन्द्र जिन्मेघवाहश्च कुम्भकर्णो विभीषणः । खरदूषणनामा च निकुम्भः कुम्मसंज्ञकः ॥४९॥ एते चान्ये च बहवः स्वजना रणकोविदाः। सिद्धविद्यामहाभासः शस्त्रशास्त्रकृतश्रयाः ॥५०॥
करनेवाले रावणके कुछ अधिक एक हजार अक्षौहिणी प्रमाण विद्याधरोंकी सेना इकट्ठी हो गयी थी ॥३९।। प्रत्येकके हजार-हजार देव जिनकी रक्षा करते थे और जो नाना गुणोंके समूहको धारण करनेवाले थे ऐसे रत्न उसके साथ चलते थे ॥४०॥ चन्द्रमाकी किरणोंके समूहके समान जिनका आकार था ऐसे चमर उसपर ढोले जा रहे थे। उसके सिरपर सफेद छत्र लग रहा था और उसकी लम्बी-लम्बी भुजाएँ सुन्दर रूपको धारण करनेवाली थीं ॥४१॥ वह पुष्पक विमानके अग्रभागपर आरूढ़ था जिससे मेरुपर्वतपर स्थित सूर्यके समान कान्तिको धारण कर रहा था। वह अपनी यानरूपी सम्पत्तिके द्वारा सूर्यका मार्ग अर्थात् आकाशको आच्छादित कर रहा था ॥४२॥ प्रबल पराक्रमका धारी रावण मनमें इन्द्रके विनाशका संकल्प कर इच्छानुकूल प्रयाणकोंसे निरन्तर आगे बढ़ता जाता था ॥४३।। उस समय वह आकाशको ठीक समद्रके समान बना रहा था क्योंकि जिस प्रकार समुद्र में नाना प्रकारके रत्नोंको कान्ति व्याप्त होती है उसी प्रकार आकाशमें नाना प्रकारके रत्नोंकी कान्ति फैल रही थी। जिस प्रकार समुद्र तरंगोंसे युक्त होता है उसी प्रकार आकाश चामररूपी तरंगोंसे युक्त होता था। जिस प्रकार समुद्रमें मीन अर्थात् मछलियोंका समूह होता है उसी प्रकार आकाश में दण्डरूपी मछलियोंका समूह था। जिस प्रकार समुद्र सैकड़ों आवर्तों अर्थात् भ्रमरोंसे सहित होता है उसी प्रकार आकाश भी छत्ररूपी सैकड़ों भ्रमरोंसे युक्त था। जिस प्रकार समुद्र मगरमच्छोंके समूहसे भयंकर होता है उसी प्रकार आकाश भी घोड़े, हाथी और पैदल योद्धारूपी मगरमच्छोंसे भयंकर था तथा जिस प्रकार समुद्रमें अनेक कल्लोल अर्थात् तरंग उठते रहते हैं उसी प्रकार आकाशमें भी अनेक शस्त्ररूपी तरंग उठ रहे थे ।।४४-४५|| जिनके अग्रभागपर मयूरपिच्छोंका समूह विद्यमान था ऐसी चमकीली ऊँची ध्वजाओंसे कहीं आकाश ऐसा जान पड़ता था मानो इन्द्रनीलमणियोंसे युक्त हीरोंसे ही व्याप्त हो ॥४६|| जिनमें नाना प्रकारके रत्नोंका प्रकाश फैल रहा था और जो ऊँचे-ऊँचे शिखरोंसे सुशोभित थे ऐसे विमानोंके समूहसे आकाश कहीं चलते-फिरते स्वर्गलोकके समान जान पड़ता था ॥४७॥ गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि मगधेश्वर ! इस विषयमें बहुत कहनेसे क्या ? मुझे तो ऐसा लगता है कि रावणकी सेना देखकर देव भी भयभीत हो रहे थे ॥४८॥ जिन्हें विद्यारूपी महाप्रकाश प्राप्त था और शख्न तथा शास्त्रमें जिन्होंने परिश्रम किया था ऐसे इन्द्रजित्, मेघवाहन, कुम्भकर्ण, विभीषण, खरदूषण, निकुम्भ और कुम्भ, ये तथा इनके सिवाय युद्ध में कुशल अन्य अनेक आत्मीयजन रावणके पीछे१. मन्दरस्थिर-विद्युतिः म.। मन्दरस्थितविद्युतिः ख., क.। २. इन्द्रध्वंसं समाधाय ख., क.। ३. तद्दण्डमान म. । ४. सुरलोकात्तं म.।
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