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दशमं पर्व
अद्यापि नैव निर्लजचकाङ्कस्य शरीरजः । परित्यजति तत्राशां धिङ्मनोभवदूषिताम् ॥ १३ ॥ दध्यौ 'चेति स कामाग्निदग्धो निस्सारमानसः । केनोपायेन तां कन्यां लप्स्ये निर्वृतिदायिनीम् ॥ १४ ॥ कदा नु वदनं तस्याः शोभाजितनिशाकरम् । चुम्बिष्यामि स्फुरच्छोणच्छविच्छन्नरदच्छदम् ॥१५॥ यामि कदा सार्धं तया नन्दनवक्षसि । कदा वाप्स्यामि तत्पीनस्तनस्पर्शसुखोत्सवम् ॥१६॥ उ इत्यभिध्यायतस्तस्य तत्समागमकारणम् । सस्मार शेमुषीविद्यामाकृतेः परिवर्तिनीम् ॥१७॥ हिमवन्तं ततो गत्वा गुहामाश्रित्य दुर्गमाम् । आराधयितुमारेभे दुःखितं प्रियमित्रवत् ॥ १८ ॥ अत्रान्तरे विनिष्क्रान्तो दिशो जेतुं दशाननः । बभ्राम धरणीं पश्यन् गिरिकान्तारभूषिताम् ॥१९॥ जित्वा विद्याधराधीशान् द्वीपान्तरगतान् वशी । भूयो न्ययोजयत् स्वेषु राष्ट्रेषु पृथुशासनः ॥२०॥ वशीकृतेषु तस्यासीत् खगसिंहेषु मानसम् । पुत्रेष्विव महेच्छा हि तुष्यन्त्यानतिमात्रतः ॥ २१ ॥ रक्षसामन्वये योऽभूद् यो वा शाखामृगान्वये । उद्बलः खेचराधीशः सर्वं तं वशमानयत् ॥२२॥ महासाधनयुक्तस्य व्रजतोऽस्य विहायसा । वेगमारुतमप्यन्ये खेचराः सोदुमक्षमाः ॥२३॥ संध्याकाराः सुवेलाश्च हेमापूर्णाः सुयोधनाः । हंसद्वीपाः परिह्लादा इत्याद्या जनताधिपाः ॥२४॥ गृहीतप्रभृता गत्वा मुस्तं मूर्धपाणयः । आश्वासिताः सुवाणीभिस्तथावस्थितसंपदः ॥ २५॥
राजा चक्रांकका पुत्र साहसगति इतना निर्लज्ज था कि वह अब भी सुताराकी आशा नहीं छोड़ रहा था सो आचार्यं कहते हैं कि इस कामसे दूषित आशाको धिक्कार हो ||१३|| जो कामाग्निसे जल रहा था ऐसा, सारहीन मनका धारक साहसगति निरन्तर यही विचार करता रहता था कि मैं सुख देनेवाली उस कन्याको किस उपाय से प्राप्त कर सकूँगा ||१४|| जिसने अपनी शोभासे चन्द्रमाको जीत लिया है और जिसका ओंठ स्फुरायमान लाल कान्तिसे आच्छादित हैं ऐसे उसके मुखका कब चुम्बन करूँगा ? ||१५|| नन्दनवनके मध्य में उसके साथ कब क्रीड़ा करूँगा, और उसके स्थूल स्तनोंके स्पर्शजन्य सुखोत्सवको कब प्राप्त होऊँगा || १६ || इस प्रकार उसके समागम - के कारणोंका ध्यान करते हुए उसने रूप बदलनेवाली शेमुषी नामक विद्याका स्मरण किया || १७ | जिस प्रकार प्रिय मित्र अपने दुःखी मित्रकी निरन्तर आराधना करता है उसी प्रकार साहसगति हिमवान् पर्वतपर जाकर उसकी दुर्गंम गुहाका आश्रय ले उस विद्याकी आराधना करने लगा ||१८|| अथानन्तर इसी बीचमें रावण दिग्विजय करनेके लिए निकला सो पर्वत और वनोंसे विभूषित पृथिवीको देखता हुआ भ्रमण करने लगा || १९|| विशाल आज्ञाको धारण करनेवाले जितेन्द्रिय रावणने दूसरे दूसरे द्वीपोंमें स्थित विद्याधर राजाओंको जीतकर उन्हें फिरसे अपनेअपने देशों में नियुक्त किया ||२०|| जिन विद्याधर राजाओंको वह वशमें कर चुका था उन सब - पर उसका मन पुत्रोंके समान स्निग्ध था अर्थात् जिस प्रकार पिताका मन पुत्रोंपर स्नेहपूर्णं होता है उसी प्रकार दशाननका मन वशीकृत राजाओंपर स्नेहपूर्ण था । सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुष नमस्कार मात्र से सन्तुष्ट हो जाते हैं ||२१|| राक्षसवंश और वानरवंशमें जो भी उद्धत विद्याधर राजा थे उन सबको उसने वश में किया था ||२२|| बड़ी भारी सेनाके साथ जब रावण आकाशमार्ग से जाता था तब उसकी वेगजन्य वायुको अन्य विद्याधर सहन करनेमें असमर्थं हो जाते थे ||२३|| सन्ध्याकार, सुवेल, हेमापूर्णं, सुयोधन, हंसद्वीप और परिह्लाद आदि जो राजा थे वे सब भेंट ले-लेकर तथा हाथ जोड़ मस्तकसे लगा-लगाकर उसे नमस्कार करते थे और रावण भी अच्छे-अच्छे वचनोंसे उन्हें सन्तुष्ट कर उनकी सम्पदाओंको पूर्ववत्
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१. चेतसि म. । २ नन्दनवनमध्ये । ३. इत्यभिधावतस्तस्य म । ४. हेमापूर्णाश्च योधनाः क., ब. । ५. तथावसितसंपदः म. ।
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