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पद्मपुराणे यद्येवं भाषते व्यक्तं गृहीतो वा ग्रहेण सः । त्वं तु स्वस्थः किमित्येवं दूताधम विकत्थसे ॥६६॥ क्रोधमूर्च्छित इत्युक्त्वा दुःप्रेक्ष्यः स्पष्टवेपथुः । गृह्णानः सायकं रुद्धो बालिनेति च चोदितः ॥६७॥ कि दतेन वराकेण हतेन प्रेषकारिणा । कुर्वन्त्येते हि नाथीयवचसः प्रतिशब्दकम् ॥६८॥ दशास्यस्यैव कर्तव्यं यदभिप्रायमाश्रितम् । आयुनूनमियत्तस्य कुरुते यत्कुभाषितम् ॥६९॥ ततो भीतो भृशं दूतो गत्वा वृत्तान्तवंदनात् । दशास्यस्य परं क्रोधं चक्रं दुःसहतेजसः ॥७० सैन्यावृतश्च संनह्य प्रस्थितस्त्वरया पुरम् । परमाणुभिरारब्धः स हि दर्पमयैरिव ॥७१॥ ततः परबलध्वानं श्रुत्वा व्योमपिधायिनम् । निर्गन्तं मानसं चक्रे बालिः संग्रामदक्षिणः ॥७२॥ तावत्सागरवृद्धयादिमन्त्रिभिनयशालिभिः । ज्वलत्क्रोधेन नीतोऽसाविति वागम्बुमिः शमम् ॥७३॥ अकारणेन देवाल विग्रहेण क्षमां कुरु । अनेके हि क्षयं याताः स्वच्छन्दं संयुगप्रियाः ॥७४॥ अर्ककीर्तिभुजाधारा रक्ष्यमाणाः सुरैरपि । अष्टचन्द्राः क्षयं प्राप्ता मेघेश्वरशरोत्करैः ॥७५॥ बहुसैन्यं दुरालोकमसिरत्नगदाधरम् । अतुलां संशयतुलां ततो नारोढुमर्हसि ॥७६॥ जगादेति ततो बालियुक्तं नात्मप्रशंसनम् । तथापि परमार्थ वो मन्त्रिणः कथयाम्यहम् ॥७७॥
भ्रलतोत्क्षेपमात्रेण दशवक्त्रं ससैन्यकम् । शक्तोऽस्मि कणशः कतु वामपाणितलाहतम् ॥७८॥ आदि गुणोंका अभ्युदय समस्त पृथिवीमें व्याप्त हो रहा है ऐसा बाली राजा क्या दुष्ट राक्षसके कर्णमूलको प्राप्त नहीं हुआ है ? अर्थात् उसने बालीका नाम क्या अभी तक नहीं सुना है ? ॥६५॥ यदि वह राक्षस ऐसा कहता है तो वह निश्चित ही भूतोंसे आक्रान्त है। अरे अधम दूत ! तू तो स्वस्थ है फिर क्यों इस तरह तारीफ हाँक रहा है ? ॥६६॥ इस प्रकार कहकर व्याघ्रविलम्बी कोधसे मच्छित हो गया। उसकी ओर देखना भी कठिन हो गया। उसका शरीर स्पष्ट रूपसे काँपने लगा। इसी दशामें वह दूतको मारने के लिए बाण उठाने लगा तो बालीने कहा ॥६७॥ कि कथित बातको कहनेवाले बेचारे दूतके मारनेसे क्या लाभ है ? यथार्थमें ये लोग अपने स्वामीके वचनोंकी प्रतिध्वनि ही करते हैं ॥६८॥ जो कुछ मनमें आया हो वह दशाननका ही करना चाहिए। निश्चय ही दशाननकी आयु अल्प रह गयी है इसीलिए तो वह कुवचन कह रहा है ।।६९।।
तदनन्तर अत्यन्त भयभीत दूतने जाकर सब समाचार दशाननको सुनाये और दुःसह तेजके धारक उस दशाननके क्रोधको द्धिगत किया ॥७०॥ वह बडी शीघ्रतासे तैयार साथ ले किष्किन्धपुरकी ओर चला सो ठीक ही है क्योंकि उसकी रचना अहंकारके परमाणुओंसे ही हुई थी ।।७१।। तदनन्तर आकाशको आच्छादित करनेवाला शत्रुदलका कल-कल शब्द सुनकर युद्ध करने में कुशल बालिने महलसे बाहर निकलनेका मन किया ॥७२।। तब क्रोधसे प्रज्वलित बालिको सागरवृद्धि आदि नीतिज्ञ मन्त्रियोंने वचनरूपी जलके द्वारा इस प्रकार शान्त किया कि हे देव! अकारण युद्ध रहने दो, क्षमा करो, युद्धके प्रेमी अनेकों राजा अनायास ही क्षयको प्राप्त हो चुके हैं॥७३-७४॥ जिन्हें अर्ककीतिकी भजाओंका आलम्बन प्राप्त था तथा देव भी जिनकी रक्षा कर रहे थे ऐसे अष्टचन्द्र विद्याधर जयकुमारके बाणोंके समूहसे क्षयको प्राप्त हुए थे ।।७५॥ साथ ही जिसे देखना कठिन था, तथा जो उत्तमोत्तम तलवार और गदाओंको धारण करनेवाली थी ऐसी बहुत भारी सेना भी नष्ट हुई थी इसलिए संशयकी अनुपम तराजूपर आरूढ़ होना उचित नहीं है ॥७६।। मन्त्रियोंके वचन सुनकर बालीने कहा कि यद्यपि अपनी प्रशंसा करना उचित नहीं है तथापि हे मन्त्रिगणो ! यथार्थ बात आप लोगोंको कहता हूँ ।।७७।। मैं सेनासहित दशाननको भ्रकुटिरूपी लताके उत्क्षेपमात्रसे बायें हस्ततलकी चपेटसे ही चूर्ण करनेमें समर्थ हूँ॥७८॥ फिर १. भाषसे म., ख., क.। २. दुःप्रेक्षः म. । ३. गृहाण म.। ४. भीती म. । ५. क्रोधः म. । ६. मेघस्वरशरोत्करैः ख., जयकुमारबाणसमूहैः ।
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