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नवमं पवं
अनन्यसदृशः क्षेत्रे भरतेऽस्मिन् प्रतापवान् । महाबलो महातेजाः श्रीमान्नयविशारदः ||५२ || महासाधनसंपन्न उग्रदण्डो महोदयः । आज्ञापयति देवस्त्वां शत्रुमर्दो दशाननः ॥ ५३ ॥
मारातिं समुद्वास्य भवतोऽर्करजाः पिता । यया किष्किन्धनाथत्वे स्थापितो वानरान्वये ॥५४॥ विस्मृत्य सुकृतं कृत्यं स त्वं जनयितुः परमं । कुरुषे प्रत्यवस्थानमिति साधो न युज्यते ॥ ५५ ॥ पितुस्ते सदृशीं प्रीतिमधिकां वा करोम्यहम् | अद्याप्येहि प्रणामं मे कुरु स्थातुं यथासुखम् ॥५६॥ स्वसारं च प्रयच्छेमां श्रीप्रभाख्यां मया सह । संबन्धं प्राप्य ते सर्वं भविष्यति सुखावहम् ||५७|| इत्युक्ते विमुखं ज्ञात्वा बलिं प्रणमनं प्रति । आननस्य विकारेण दूतः पुनरुदाहरत् ॥५८॥ किमत्र बहुनोक्तेन कुरु शाखामृग श्रुतौ । मदीयं निश्चितं वाक्यमल्पलक्ष्मीविडम्बिः ॥ ९९ ॥ कुरु सज्जौ करं दातुमादातुं वायुधं करौ । गृहाण चौमरं शीघ्रं ककुभां वा कदम्बकम् || ६० ॥ शिरो नमय चापं वा नयाज्ञां कर्णपूरताम् । मौर्वी वा दुस्सहारावामात्मजीवितदायिनीम् ॥ ६१ ॥ मत्पादजं रजो मूर्ध्नि शिरस्त्रमथवा कुरु । घटयाञ्जलिमुद्वृत्य करिणां वा महाचयम् ||६२ || विमुञ्चेषं धरित्रीं वा मजैकं वेत्रकुन्तयोः । पश्य मेऽङ्घ्रिनखे वक्त्रमथवा खड्गदर्पणे ।। ६३ ।। ततः परुषवाक्येन दूतस्योद्र्धूतमानसः । नाम्ना व्याघ्रविलम्बीति बमाण भटसत्तमः ॥ ६४ ॥ समस्तधरणीव्यापिपराक्रमगुणोदयः । बालिदेवो न किं यातः कर्णजाहं कुरक्षसः ||६५||
भरत क्षेत्रमें अपनी शानी नहीं रखता । वह अतिशय प्रतापी, महाबलवान्, महातेजस्वी, लक्ष्मीसम्पन्न, नीतिमें निपुण, महासाधन सम्पन्न, उग्रदण्ड देनेवाला, महान् अभ्युदयसे युक्त, और शत्रुओंका मान मर्दन करनेवाला है । वह तुम्हें आज्ञा देता है कि ||५१-५३। मैंने यमरूपी शत्रुको हटाकर आपके पिता सूर्यरजको वानरवंशमें किष्किन्धपुरके राजपदपर स्थापित किया था || ५४ || तुम उस उपकारको भूलकर पिताके विरुद्ध कार्य करते हो । हे सत्पुरुष ! तुम्हें ऐसा करना योग्य नहीं है ॥५५॥ | मैं तेरे साथ पिताके समान अथवा उससे भी अधिक प्यार करता हूँ। तू आज भी आ और सुखपूर्वक रहनेके लिए मुझे प्रणाम कर ॥ ५६ ॥ अथवा अपनी श्रीप्रभा नामक बहन मेरे लिए प्रदान कर । यथार्थ में मेरे साथ सम्बन्ध प्राप्त कर लेनेसे तेरे लिए समस्त पदार्थ सुखदायक हो जायेंगे || ५७ || इतना कहनेपर भी बाली दशाननको नमस्कार करनेमें विमुख रहा । तब मुखकी विकृति रोष प्रकट करता हुआ दूत फिर कहने लगा कि अरे वानर ! इस विषय में अधिक कहनेसे क्या लाभ है ? तू मेरे निश्चित वचन सुन, तू व्यर्थ ही थोड़ी-सी लक्ष्मी पाकर विडम्बना कर रहा है ||५८-५९ || तू अपने दोनों हाथोंको या तो कर देनेके लिए तैयार कर या शस्त्र ग्रहण करने के लिए तैयार कर । तू या तो शीघ्र ही चामर ग्रहण कर अर्थात् दास बनकर दशाननके लिए चामर ढोल या दिशामण्डलको ग्रहण कर अर्थात् दिशाओंके अन्त तक भाग जा || ६०|| तू या तो शिरको नम्र कर या धनुषको नम्रीभूत कर । या तो आज्ञाको कानोंमें पूर्ण कर या असहनीय शब्दोंसे युक्त तथा अपना जीवन प्रदान करनेवाली धनुषकी डोरीको कानोंमें पूर्ण कर अर्थात् कानों तक धनुष की डोरी खींच ॥ ६१ ॥ या तो मेरी चरणरजको मस्तकपर धारण कर अथवा सिरकी रक्षा करनेवाला टोप मस्तकपर धारण कर । या तो क्षमा माँगने के लिए हाथ जोड़कर अंजलियाँ हाथियों बड़ा भारी समूह एकत्रित कर ||६२|| या तो बाण छोड़ या पृथिवीको प्राप्त - कर । या तो वेत्र ग्रहण कर या माला ग्रहण कर । या तो मेरे चरणोंके नखोंमें अपना मुख देख या तलवाररूपी दर्पण में मुख देख || ६३|| तदनन्तर दूतके कठोर वचनोंसे जिसका मन उद्भूत हो रहा था ऐसा व्याघ्रविलम्बी नामक प्रमुख योद्धा कहने लगा ||६४ || कि रे दूत ! जिसके पराक्रम १. अनन्यसदृशे म । सदृश ख । २. कुरुते म । ३. साधोर्न म । ४. विडम्बित म । ५. चापरं ब., म. । ६. कर्णयोः समीपमिति कर्णजाहम् 'तश्य मूले कुणब्जाहची' इति जाहच् प्रत्ययः ।
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