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नवमं पर्व
ऋषभाय नमो नित्यमजिताय नमो नमः । संभवाय नमोऽजस्रममिनन्दनरूढये ॥१८५॥ नमः सुमतये पद्मप्रमाय सततं नमः । सुपाश्र्वाय नमः शश्वन्नमश्चन्द्रसमत्विषे ॥१८६॥ नमोऽस्तु पुष्पदन्ताय शीतलाय नमो नमः । श्रेयसे वासुपूज्याय नमो लब्धात्मतेजसे ॥१८७॥ विमलाय नमस्त्रेधा नमोऽनन्ताय संततम् । नमो धर्माय सौख्यानां नमो मलाय शान्तये ॥१८॥ नमः कुन्थुजिनेन्द्राय नमोऽरस्वामिने सदा । नमो मल्लिमहेशाय नमः सुव्रतदायिने ॥१८९॥ अन्येभ्यश्च भविष्यद्भयो भूतेभ्यश्च सुमावतः । नमोऽस्तु जिननाथेभ्यः श्रमणेभ्यश्च सर्वदा ॥१९॥ नमः सम्यक्त्वयुक्ताय ज्ञानायकान्तनाशिने । दर्शनाय नमोऽजत्रं सिद्धेभ्योऽनारतं नमः ॥१९१॥ पवित्राण्यक्षराण्येवं लङ्कास्वामिनि गायति । चलितं नागराजस्य विष्टरं धरणश्रुतेः ॥१९२॥ ततोऽवधिकृतालोकस्तोषविस्तारितेक्षणः । स्फुरत्फणामणिच्छायादूरध्वस्ततमश्चयः ॥१९३॥ सकलामलतारेशप्रसन्नमुखशोभितः । पातालादुद्ययौ क्षि नागराजः सुमानसः ॥१९४॥ विधाय च नमस्कारं जिनेन्द्राणां विधानतः । पूजां च ध्यानसंजातसमस्तद्रव्यसंपदम् ॥१९५॥ जगाद रावणं साधो साधुगीतमिदं त्वया। जिनेन्द्रस्तुतिसंबद्धं रोमहर्षणकारणम् ॥१९६॥ पश्य तोपेण मे जातं पुलकं घनकर्कशम् । पातालस्थस्य यच्छान्तिर्नाद्यापि प्रतिपद्यते ॥१९७॥ राक्षसेश्वर धन्योऽसि यः स्तौषि जिनपुङ्गवान् । बलादाकृष्य भावेन त्वदीयेनाहमाहृतः ॥१९८॥ वरं वृणीष्व तुष्टोऽस्मि तव भक्त्या जिनान्प्रति । ददाम्यभीप्सितं वस्तु सद्यः कुनरदुर्लभम् ॥१९९॥
ततः कैलासकम्पन प्रोक्तोऽसौ विदितो मम । धरणो नागराजस्त्वं पृष्टस्तावनिवेदय ॥२०॥ नमस्कार हो ॥१७७-१८४|| ऋषभ, अजित, सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतल, श्रेयोनाथ, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, सौख्योंके मूल कारण शान्तिनाथ, कुन्थु जिनेन्द्र, अरनाथ, मल्लि महाराज और मुनिसुव्रत भगवान् इन वर्तमान तीर्थंकरोंको मन-वचन-कायसे नमस्कार हो । इनके सिवाय जो अन्य भूत और भविष्यत् काल सम्बन्धी तीर्थकर हैं उन्हें नमस्कार हो । साधुओंके लिए सदा नमस्कार हो। सम्यक्त्वसहित ज्ञान और एकान्तवादको नष्ट करनेवाले दर्शनके लिए निरन्तर नमस्कार हो, तथा सिद्ध परमेश्वरके लिए सदा नमस्कार हो ॥१८५-१९१|| लंकाका स्वामी रावण जब इस प्रकारके पवित्र अक्षर गा रहा था तब नागराज धरणेन्द्रका आसन कम्पायमान हुआ ||१९२।। तदनन्तर उत्तम हृदयको धारण करनेवाला नागराज शीघ्र ही पातालसे निकलकर बाहर आया। उस समय अवधिज्ञानरूपी प्रकाशसे उसकी आत्मा प्रकाशमान थी, सन्तोषसे उसके नेत्र विकसित हो रहे थे, ऊपर उठे हुऐ फणोंमें जो मणि लगे हुए थे उनकी कान्तिसे वह अन्धकारके समूह दूर हटा रहा था और पूर्ण तथा निर्मल चन्द्रमाके समान प्रसन्न मुखसे शोभित था ॥१९३-१९४॥ उसने आकर जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार किया और तदनन्तर ध्यान मात्रसे ही जिसमें समस्त द्रव्यरूपी सम्पदा प्राप्त हो गयी थी ऐसी विधिपूर्वक पूजा की ।।१९५।। पूजाके बाद उसने रावणसे कहा कि हे सत्पुरुष ! तुमने जिनेन्द्रदेवकी स्तुतिसे सम्बन्ध रखनेवाला यह बहुत अच्छा गीत गाया है। तुम्हारा यह गीत रोमांच उत्पन्न होनेका कारण है ।।१९६॥ देखो, सन्तोषके कारण मेरे शरीरमें सघन एवं कठोर रोमांच निकल आये हैं। मैं पातालमें रहता था फिर भी तुझे अब भी शान्ति प्राप्त नहीं हो रही है ॥१९७।। हे राक्षसेश्वर ! तू धन्य है जो जिनेन्द्र भगवान्की इस प्रकार स्तुति करता है। तेरी भावनाने मुझे बलपूर्वक खींचकर यहाँ बुलाया है ।।१९८॥ जिनेन्द्रदेवके प्रति जो तेरी भक्ति है उससे मैं बहुत सन्तुष्ट हुआ हूँ। तू वर माँग, मैं तुझे शीघ्र ही कुपुरुषोंको दुर्लभ इच्छित वस्तु देता हूँ ॥१९९॥ तदनन्तर
१. श्रवणेभ्यश्च म.। २. -ण्येव म.। ३. पातालस्य म.। ४. यस्तोषि म. । ५. रावणेन ।
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