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नवमं पर्व
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आदित्याभिमुखस्तस्य करानात्मकरैः किरन् । समे शिलातले रत्नस्तम्भाकारोऽवतिष्ठते ॥१०८॥ कोऽप्ययं सुमहान् वीरः सुघोरं धारयंस्तपः । मुक्तिमाकाङ्क्षति क्षिप्रं वृत्तान्तोऽयमतोऽभवत् ॥१०९॥ निवर्तयाम्यतो देशाद्विमानं निर्विलम्बितम् । मुनेरस्य प्रभावेण यावन्नायाति खण्डशः ॥११०॥ श्रुत्वा मारीचवचनमथ कैलासभूधरम् । ईक्षाञ्चक्रे यमध्वंसः स्वपराक्रमगर्वितः ॥१११॥ नानाधातुसमाकीर्ण 'गणैर्युक्तं सहस्रशः । सुवर्णघटनारम्य पदपक्तिभिराचितम् ॥११२॥ प्रकृत्यनुगतैर्युक्तं विकारविलेसंयुतम् । स्वरैर्बहुविधैः पूर्ण लब्धव्याकरणोपमम् ॥११३॥ तीक्ष्णैः शिखरसंघातैः खण्डयन्तमिवाम्बरम् । उत्सर्पच्छीकरैः स्पष्टं हसन्तमिव निर्झरैः ॥११॥ मकरन्दसुरामत्तमधुव्रतपधितम् । शालौघवितताकाशं नानानोकहसंकुलम् ॥११५॥ सर्वर्तुजमनोहारिकुसुमादिमिराचितम् । चरत्प्रमोदवत्सत्त्वसहस्रसदुपत्यकम् ॥११६॥ औषधत्रासदूरस्थव्यालजालसमाकुलम् । मनोहरेण गन्धेन दधतं यौवनं सदा ॥११७॥ शिलाविस्तीर्णहृदयं स्थूलवृक्षमहाभुजम् । गुहागम्भीरवदनमपूर्वपुरुषाकृतिम् ॥११॥ एक मुनिराज प्रतिमा योगसे विराजमान हैं ॥१०७|| ये सूर्यके सम्मुख विद्यमान हैं और अपनी किरणोंसे सूर्यको किरणोंको इधर-उधर प्रक्षिप्त कर रहे हैं। समान शिलातलपर ये रत्नोंके स्तम्भके समान अवस्थित हैं ॥१०८॥ घोर तपश्चरणको धारण करनेवाले ये कोई महान् वीर पुरुष हैं और शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं। इन्हींसे यह वत्तान्त हआ है ||१०९।। इन मनिरा के प्रभावसे जबतक विमान खण्ड-खण्ड नहीं हो जाता है, तबतक शीघ्र ही इस स्थानसे विमानको लौटा लेता हूँ॥११०॥ अथानन्तर मारीचके वचन सुनकर अपने पराक्रमके गर्वसे गर्वित दशाननने कैलास पर्वतकी ओर देखा ॥१११। वह कैलास पर्वत व्याकरणकी उपमा प्राप्त कर रहा था क्योंकि जिस प्रकार व्याकरण भू आदि अनेक धातुओं से युक्त है उसी प्रकार वह पर्वत भी सोना-चाँदी अनेक धातुओंसे युक्त था। जिस प्रकार व्याकरण हजारों गणों-शब्द-समूहोंसे युक्त है उसी प्रकार वह पर्वत भी हजारों गणों अर्थात् साधु-समूहोंसे युक्त था। जिस प्रकार व्याकरण सुवर्ण अर्थात् उत्तमोत्तम वर्णों की घटनासे मनोहर है उसी प्रकार वह पर्वत भी सुवर्ण अर्थात् स्वर्णकी घटनासे मनोहर था। जिस प्रकार व्याकरण पदों अर्थात् सुबन्त तिङन्तरूप शब्दसमुदायसे युक्त है उसी प्रकार वह पर्वत भी अनेक पदों अर्थात् स्थानों या प्रत्यन्त पर्वतों अथवा चरणचिह्नोंसे युक्त था ॥११२।। जिस प्रकार व्याकरण प्रकृति अर्थात् मूल शब्दोंके अनुरूप विकारों अर्थात् प्रत्ययादिजन्य विकारोंसे युक्त है उसी प्रकार वह पर्वत भी प्रकृति अर्थात् स्वाभाविक रचनाके अनुरूप विकारोंसे युक्त था। जिस प्रकार व्याकरण विल अर्थात् मूलसूत्रोंसे युक्त है उसी प्रकार वह पर्वत भी विल अर्थात् ऊषरपृथिवी अथवा गर्त आदिसे युक्त था। और जिस प्रकार व्याकरण उदात्त-अनुदात्तस्वरित आदि अनेक प्रकारके स्वरोंसे पूर्ण है उसी प्रकार वह पर्वत भी अनेक प्रकारके स्वरों अर्थात् प्राणियोंके शब्दोंसे पूर्ण था ॥११३॥ वह अपने तीक्ष्ण शिखरोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो आकाशके खण्ड ही कर रहा था। और ऊपरकी ओर उछलते हुए छींटोंसे युक्त निर्झरोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो हँस ही रहा हो ॥११४॥ मकरन्दरूपी मदिरासे मत्त भ्रमरोंके समूहसे वह पर्वत कुछ बढ़ता हुआ-सा जान पड़ता था। शालाओंके समूहसे उसने आकाशको व्याप्त कर रखा था। साथ ही नाना प्रकारके वृक्षोंसे व्याप्त था ॥११५।। वह सर्व ऋतुओंमें उत्पन्न होनेवाले पुष्प आदिसे व्याप्त था तथा उसकी उपत्यकाओंमें हर्षसे भरे हजारों प्राणी चलते-फिरते दिख रहे थे ॥११६॥ वह पर्वत औषधियोंके भयसे दूर स्थित सर्पोके समूहसे व्याप्त था तथा मनोहर सुगन्धिसे ऐसा जान पड़ता था मानो सदा यौवनको हो धारण कर रहा हो ॥११७।। बड़ी-बड़ी १. गुण -ब. । २. विलम्-उषरं मूलसूत्रं च ( टिप्पणम् ) । ३. -मिवाधरम् म. । ४. परिस्थितम् ख. ।
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