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अष्टमं पर्व
अथ विज्ञाय जयिनं दशवक्त्रं दिवाकरः । नेत्रयोर्गोचरीभावं भयादिव समत्यजत् ॥ ४०२ ॥ संध्यारागेण चच्छन्नं समस्तं भुवनान्तरम् । संजातेनानुरागेण कैकसेयादिवोरुणा ||४०३ ॥ ध्वस्तसंध्येन च व्याप्तं ध्वान्तेन क्रमतो नमः । दशास्यस्येव कालेन कर्तुमेतेन सेवनम् ||४०४|| संमेदभूधरस्यान्ते ततः संस्थलिभूभृतः । चकार शिविरं कुक्षाववतीर्य नभस्तलात् ॥४०५॥ घनौघादिव निर्घातः प्रावृषेण्यादथ ध्वनिः । येन तत्सकलं सैन्यं कृतं साध्वसपूरितम् ||४०६ || भङ्गमालानवृक्षाणां चक्रुः स्तम्बेरमोत्तमाः । हेषितं सप्तयश्चोच्चैरुत्कर्णाः स्फुरत्त्वचः ||४०७ || किं किमेतदिति क्षिप्रं जगाद च दशाननः । अपराधनिभेनायं मतुं कोऽद्य समुद्यतः || ४०८ || नूनं वैश्रवणः प्राप्तः सोमो वा रिपुचोदितः । विश्रब्धं वा स्थितं मत्वा ममान्यः शत्रुगोचरः ||४०९|| तदादिष्टः प्रहस्तोऽथ तं देशं समुपागतः । अपश्यत्पर्वताकारं लीलायुक्तमनेकपम् ||४१० ॥ निवेदितं ततस्तेन दशास्याय सविस्मयम् । महाराशिमिवाव्दानां देव पश्य मतङ्गजम् ||४११।। ईक्षितः पूर्वमप्येष दन्तिवृन्दारको मया । इन्द्रेणाप्युज्झितो धर्तुमसमर्थेन वारणः ।।४१२ || मन्ये पुरन्दरस्यापि दुर्ग्रहोऽयं सुदुस्सहः । गजः किमुत तुङ्गौजाः शेषाणां प्राणधारिणाम् ||४१३॥ ततः प्रहस्य विश्रब्धं जगाद "धनदार्दनः । आत्मनो युज्यते कर्तुं न प्रहस्त प्रशंसनम् ||४१४ ||
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अथानन्तर सन्ध्या काल आया और सूर्य डूब गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो सूर्यने दशाननको विजयी जानकर भयसे ही उसके नेत्रोंका गोचर-स्थान छोड़ दिया था ॥ ४०२ ॥ सन्ध्याकी लालिमासे समस्त लोक व्याप्त हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो दशाननसे उत्पन्न हुए बहुत भारी अनुराग से ही व्याप्त हो गया था ||४०३ ।। क्रम-क्रम से सन्ध्याको नष्ट कर काला अन्धकार आकाशमें व्याप्त हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो दशाननकी सेवा करनेके लिए ही व्याप्त हुआ था ॥ ४०४|| तदनन्तर दशाननने आकाशसे उतरकर सम्मेदाचलके समीप संस्थलि नामक पर्वतके ऊपर अपना डेरा डाला ||४०५ ॥
अथानन्तर - जिस प्रकार वर्षाकालीन मेघोंके समूहसे वज्रका शब्द निकलता है इसी प्रकार कहीं से ऐसा भयंकर शब्द निकला कि जिसने समस्त सेनाको भयभीत कर दिया ॥४०६ ॥ बड़े-बड़े हाथियोंने अपने आलानभूत वृक्ष तोड़ डाले और घोड़े कान खड़े कर फरूरी लेते हुए हिनहिनाने लगे ||४०७ || वह शब्द सुनकर दशानन शीघ्रतासे बोला कि यह क्या है ? क्या है ? अपराधके बहाने मरनेके लिए आज कौन उद्यत हुआ है ? ||४०८|| जान पड़ता है कि वैश्रवण आया है अथवा शत्रुसे प्रेरित हुआ सोम आया है अथवा मुझे निश्चिन्त रूपसे ठहरा जानकर शत्रु पक्षका कोई दूसरा व्यक्ति यहाँ आया है || ४०९ ।। तदनन्तर दशाननकी आज्ञा पाकर प्रहस्त नामा मन्त्री उस स्थानपर गया जहांसे कि वह शब्द आ रहा था । वहाँ जाकर उसने पर्वतके समान आकारवाला, क्रीड़ा करता हुआ एक हाथी देखा ॥ ४१० ॥ वहाँसे लौटकर प्रहस्तने बड़े आश्चयँके साथ दशाननको सूचना दी कि हे देव ! मेघोंकी महाराशिके समान उस हाथीको देखो || ४११ || ऐसा
पड़ता है कि इस हाथीको मैंने पहले भी कभी देखा है, इन्द्र विद्याधर भी इसे पकड़ने में समर्थं नहीं था इसीलिए उसने इसे छोड़ दिया है, अथवा इन्द्र विद्याधरकी बात जाने दो साक्षात् देवेन्द्र भी इसे पकड़नेमें असमर्थं है, इसे कोई सहन नहीं कर सकता । नहीं जान पड़ता कि यह हाथी है या समस्त प्राणियोंका एकत्रित तेजका समूह है ? || ४१२ - ४१३ ॥ | तब दशाननने हँसकर कहा कि प्रहस्त ! यद्यपि अपनी प्रशंसा स्वयं करना ठीक नहीं है फिर भी मैं इतना तो कहता ही हूँ कि यदि मैं इस हाथीको क्षण भरमें न पकड़ लूँ तो बाजूबन्दसे पीड़ित अपनी इन दोनों भुजाओंको काट
१. कक्षा - म. । २. निर्याताः म । ३. मिषेणायं म । ४. विधुत्वं वा क, ख । ५. कुबेरविजेता ।
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